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मंगलवार, 23 जून 2009

सिसकियां लेती है मन की वेदना


सिसकियां लेती है मन की वेदना
झुंझलाती रहती है अपनी चेतना

हर मोड़ पर दिखते हैं अब बिखरे कांटे
ना जाने क्यों दिल से दिल को हम बांटे

प्यार का करते रहते है हम सब ढोंग
लेकिन हैं दुश्मन एक दूजे के हम लोग

खून मानवता का अब और सस्ता हुआ
जीना बेसुध दुनिया में और महंगा हुआ

अंगड़ाई जोश की लेती तो है जवानी
स्वार्थ कि खातिर बन जाती नई कहानी

फ़ैशन बन कर अब विलुप्त हो रही खादी
मूक रहकर खुली आंख से देख रहे बर्बादी

कुछ हक़ीकत है, कुछ है फंसाना
फ़िर भी जीने का ढूंढ़े हम बहाना
-प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
( पुरानी कुछ रचनाओ में से एक आपके लिए )

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