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शनिवार, 13 जून 2009

सोचता था


सोचता था,

कुछ करूँगा अपने लिए

कुछ समाज के लिए

कुछ देश के लिए

क्या मालूम था

ये टूट जायेंगे शीशे की तरह

कोसा पत्थर को

जिसने मेरे अरमानो के

शीशे को चूर किया

अरे !! ये तो पत्थर है

इसका क्या दोष

जिसने ये पत्थर फेंका

न जाने उसके पास मेरे लिए

क्या अरमान थे

दोष तो मेरा है

जिसने पत्थर को पास आने दिया

सोचा इस शीशे को

जोड़ दूँ जाकर, नया आकर दूँ इसे

परन्तु ये तो बिल्कुल टूट चुका है

सोच रहा हूँ कहीं डाल दूँ जाकर

नही तो ये मुझे , समाज और देश को

दुःख पहुंचाएंगे जिनके लिए

मेरे बहुत से अरमान थे .......


- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

( यह रचना भी डायरी के पन्नो में दर्ज थी, आज इसे खुला वातावरण मिला)



शुक्रवार, 12 जून 2009

मै


मै कौन हूँ ?

स्वयं को स्वयं से पूछता हूँ

परन्तु ,

उतर देने की स्थिति में

न मै स्वयं को पाता हूँ .

क्योंकि ,

न मै स्वयं को जानता हूँ ,

न ही स्वयं को पहचानता हूँ .

इसलिये,

मै स्वयं को पहचानने की

इच्छा मन में रखता हूँ

कुछ करने से पहले

ख़ुद को समझना चाहता हूँ

कभी - कभी

मै , मुझे सोचने पर करता है

मजबूर

क्या मै स्वयं के लिए हूँ ?

और नही तो

वो कौन से चीज है

जो मुझे, स्वयं से अलग रख सके।

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

( सन १९८५ में लिखे कुछ शब्द आज भी यही प्रश्नं रोज पूछते है).
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