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शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

अकेला


मेरे चारो ओर है
सुन्दरता की चादर ओढे
धरती और आकाश
मै फिर भी अकेला

पहले
मै भी इस सुंदरता
का प्रतीक था
सावन का रंग
मुझ पर भी चढता था
हर कोई मेरी
बात भी करता था
मेरे फुलो और पत्तियो
को अपना बनाता था
बंसत भी
मुझ से शरमाता था
छांव का आसरा
पथिक मुझमे
ढूढा करता था



अब
समय बदल गया
मै वह नही रहा
मेरी खुशिया
मेरी उम्र के साथ
कुछ मैने
कुछ अपनो ने
छीन ली
अब मै
निसहाय मौन
खडा हूँ
सूख गई है काया
ना मोह ना माया
अब किसी को
मै न भाया
फिर भी अपनी
पहचान छोडे जा रहा हूँ
जब तक आप
रखना चाहते है
नही तो उखाड फैंकना
हर उस तस्वीर से
जिसमे मेरा
अभी कुछ अंश बाकी है

अकेला था
अकेला हूँ
फिर भी
आपके सामने हूं
जब तक रख सको
सहेज सको
संवार सको
या फिर
अलविदा कह दो!!!!

- प्रतिबिम्ब बड्थ्वाल, अबु धाबी यूएई

6 टिप्‍पणियां:

  1. निस्सहाय अब मैं मौन खड़ा हूँ , सूख गयी है काया ... स्वयं के अकेलेपन को मार्मिकता से व्यक्त किया है @► प्रति भैय्या ... :)

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  2. ummda rachan pratibimb ji...ek thake pathik ki wedna sath na rah paane ki wiwstaa bahut marmik roop me aapne wyakt ki he.....prasansiniy....:-))

    जवाब देंहटाएं
  3. लाजवाब रचना...भाव और शब्द...विलक्षण...
    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  4. प्रति जी !!! आप भावनाओ को जिस तरह से प्रस्तुत करते है .लाजवाब है... एक एक पंक्तियाँ अमुल्या और वेदना से भरपूर ..उस वृक्ष की जिसे सराहा आया उसके अतीत में ..और जब की वो उस पेड़ के पत्ते भी झड चुके तो आज उसके नीचे बैठने वाले सराहने वाले उस पेड़ को छोड़ कर जा चुके है... लोग उगते सूरज को नमन करते है .. समाज में यही स्तिथि है... आज बूढ़े माँ बाप भी कभी इसी तरह भगवान भरोसे छोड़ दिए जाते है... आपकी कविता हर पहलूवो को छूती है.. .. बहुत सुन्दर... एक एक पंक्ति की अपनी ही जान है...nutan

    जवाब देंहटाएं
  5. शुक्रिया मित्रो इस स्नेह के लिए...
    @नूतन जी आज जब इस चित्र को देखा तो बस मन हो आया कि इसके भाव को लिख दिया जाये जो हमारे जीवन के भी करीब है..

    जवाब देंहटाएं
  6. अकेला था
    अकेला हूँ
    फिर भी
    आपके सामने हूं
    जब तक रख सको
    सहेज सको
    संवार सको
    या फिर
    अलविदा कह दो!!!!




    नि:शब्द
    पुरकशिश रचना
    बंधाई स्वीकारें

    जवाब देंहटाएं

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