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रविवार, 3 अक्तूबर 2010

कुछ लमहे यादो के


कुछ लमहे यादो के सैलाब में बह जाते है
हर याद में कुछ लमहे बस सिमट जाते है

याद तुम भी आते हो फिर कहीं खो जाते हो
बंद आँखो से देखता हूँ साथ अपने ही पाता हूँ

अहसास तेरा पाते ही आस संवरने लगती है
भाव पिघलने लगते है सांस बिखरने लगती है

फ़िर यादों में भी  दूर हो जाती हो
मृग- तृष्णा सी  नज़र आती हो

-       प्रतिबिम्ब बड्थ्वाल, आबू दाबी, यू ए ई
(एक पुरानी रचना)

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया .
    कृपया इसे भी पढ़े -http://www.ashokbajaj.com/2010/10/blog-post_03.html

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (4/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  3. याद तो धरोहर होती है ।
    अच्छी रचना ।

    जवाब देंहटाएं
  4. बंद आँखों में जो सपना है ...
    लगता मगर अपना है ...
    खूबसूरत भावाभियक्ति ...!

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी/प्रतिक्रिया एवम प्रोत्साहन का शुक्रिया

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