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शुक्रवार, 11 जून 2010

देखो क्या है बदला.........

देखो क्या है बदला.........




बदला जमाना बदल गई संस्कृति
हर रिश्ता चढ गया इसकी आहुति
हिन्दी खो गई अब जुंबा पर अंग्रेजी है समाई
करे खिलाफत जो उसकी सम्झो शामत आई
हमने भी पीछे - आगे खूब नज़र दौडाई
देखा क्या बदला, फिर अपनी समझ मे आई

मां पिताजी बन गये अब "मोम - डैड"
मित्रो से अब कहते है "हैल्लो "ड्य़ूड "
भैया मोरे बन गये है अपने "ब्रो"
बात करे तो लगता है जैसे करते"थ्रो"
बहना बन गई अब देखो "सिस"
आम हुये चारो ओर अब "किस"

घर जाकर अपनो से मिलते थे तब
अब मिलते  यार-दोस्तो से जाकर "पब"
जमाना बदल गया बदल गई अब सोच
चाय अपनी भूल गई, अब खुलती "स्कोच"
घर को अपना घर बना न पाये लेकिन
भाये हमको अब तो "रिलेशन - लिव इन"

बदल गई है सच मे कितनी  अब  "लाईफ"
"गे" का जमाना है, ढूढने पडेगे अब "हज़्बेंड -वाईफ"
पचता नही किसी को अब घर का "फूड"
कहते है "फास्ट फूड " है अब "वेरी गुड"
भूल गये है हम  एक दुसरे को देख मुस्कराना
"चैटिंग"और"स्माईली" का देखो आया ज़माना

..........................बदला है ज़माना

- प्रतिबिम्ब बडथ्वाल

बुधवार, 9 जून 2010

टिकट मुस्कराहट का....

टिकट मुस्कराहट का....

मुस्कराहट कंही खरीदनी नही पडती। येसे कई अवसर आते है जब छोटी छोटी बाते भी इसका कारण बन जाती है। एक छोटी सी घटना आज भी हुई जिसे आप लोगो के साथ बांटना चाहता हूँ।

अबु धाबी में आजकल निर्माण इतना चल रहा है कि यातायात हर जगह रुका हुआ प्रतीत होता है। गर्मी तो हाल खराब कर ही रही है। हां तो आज मुझे एक कार्य हेतु अल नूर् अस्पताल मे जाना था जो कि खलीफा स्ट्रीट में स्थित है। जब पहुंचा तो कार पार्किंग ढूढने मे समय लगा, तीन चार चक्कर लगाने पडे। तभी पार्किंग से फोर व्हील ड्राइव  निकलते हुये देखी। मैने दाय़ी तरफ का इशारा लगा कर गाडी खडी की और जैसे ही वो महाश्य निकले मैने अपनी गाडी खडी कर दी उस स्थान मे। मै अभी सोच ही रहा था कि पर्किंग टिकट किस जगह से लेना पडेगा, तभी मेरे शीशे मे खटखट हुई। मैने शीशा खोला कार का तो एक यूएई नागरिक काफी उम्र  वाले सामने खडे थे और उन्होने पार्किंग टिकट मेरी ओर बढा दिया। मै एक दम चौक सा गया। मैने उन्हे पैसे देने चाहे(3 दिरहाम) लेकिन उन्होने हंसते हुये कहा नही मेरा काम 10 मिनट मे हो गया अभी काफी वक्त है। मैने उन्हे धन्यवाद दिया और मै भी मुस्करा दिया उनकी इस दिल नवाज़ी पर। फिर जब मै कार से निकला तो वे ही महाशय थे जिन्होने कार निकाली थी और मैने वंहा लगाई थी। फिर से हम दोनो ने एक दुसरे को  देखा और मुस्करा दिये।

ये नही कि मैने 3 दिरहाम बचा लिये या उन्होने मुझ पर अहसान किया या जताया। वह गाडी निकाल कर सीधे जा सकते थे लेकिन रुक कर इस प्रकार से एक मुस्कारहट का तौहफा दे गये। हालाकि मैने कई बार इस तरह से किया है लेकिन मुझे किसी ने पहली बार इस प्रकार से दिया तो मै भी मुस्कराये बिना नही रह सका। इसके बाद मुझे 3-4 जगह जाना हुआ और सभी कार्य आसानी से निपट गये उस मुस्कराहट के अहसास के साथ। आखिर टिकट मुस्कराहट का जो था....

प्रतिबिम्ब बड्थ्वाल

मंगलवार, 8 जून 2010

रोशनी की तलाश ...



एक गलियारा
कुछ अंधेरा
अपने मे समाये हुये
मै चला जा रहा था
इस गलियारे के
बीचो बीच 
रोशनी की तलाश मे
आंखे बडी हुई
मन मे एक डर
शरीर पर एक सिरहन
चेहरे मे सिकन
रुकती सी धडकन 

सहसा एक रोशनी
धीमे से गलियारे मे
फैलने लगी
सब कुछ साफ
नज़र् आने लगा
गलियारे का स्वरुप 
अलग सा था
मेरी सोच के विपरीत
जिसे अंधेरे में समेटा था
अब सब कुछ सहज था
ना डर था ना सिकन 
अधेरे और रोशनी का
बस ये अंतर था

इस रोशनी की तलाश 
अब जीवन मे भी है
इतना पता है मुझे
रोशनी मेरे भीतर है
बस  अहसास 
होने का इंतज़ार है
जब मै स्वयं को
इस रोशनी से
प्रकाशमय कर सकूं।

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

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