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गुरुवार, 13 जनवरी 2011

ज़िंदगी के कैनवास पर...




जिंदगी को लिखने का मौक़ा मिला
कई पन्नो और कलम का साथ इसमें मिला
कभी पन्ने खाली रहे
कभी कुछ लिखा गया
कभी दूसरो का कहा लिख गया
कभी बहुत कुछ इसमें लिखा गया
कभी तोड मोड कर फेकं दिया
कभी उन्ही पन्नो को फिर से उठाया

कभी इसमें आंसू जुड़े
कभी इसमे प्रेम जुड़ा
कभी इसमे खुद को जोडा
कभी इसमे अपनो को जोडा
कभी समाज कभी देश इनमे उभरा
कभी बन आईना अंतर्मन इसमे उतारा

  कभी ये पन्ने
  आसमान सा कैनवास बन जाते है
  जिसमे सब कुछ समेटने का मन करता है
  कभी ये पन्ने
  सागर की लहर बन जाते है
  जिसमें हिलोरे खाकर दूसरी लहर में मिल जाता हूँ
  कभी ये पन्ने
  फूल की पंखुड़ी बन जाते है
  जिसमें खुशबू बन अपनो के संग चल पडता हूँ
  कभी ये पन्ने
  प्लास्टिक सा बन जाते है
  जिसमें लिखने की हर कोशिस नाकाम होती है
  कभी इन पन्नो पर
  पानी फिर जाता है
  जिसमें स्याही फैल जाने से, सोच नया रुप लेती है
  कभी इन पन्नो पर
  कलम आढी तिरछी रेखाये अंकित करती है
  जिसमें रेखायें अलग दिखती है,सब बिखरा सा लगता है

  जीवन की कलम में स्याही अभी भी बाकी है
  निरंतर चलती रहेगी तब तक उम्मीद बाकी है
  कविता और सोच की जुगल्बन्दी अभी बाकी है
  ज़िंदगी और मेरी दास्तां की गुफ़्त्गू अभी बाकी है
  कलम और पन्ने की कहानी अभी भी बाकी है
  आपके साथ और स्नेह की रिवायत अभी बाकी है

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
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