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गुरुवार, 10 मार्च 2011

~ कल की सुबह ~



~ कल की सुबह ~

आज समुन्द्र फिर सूखा सा लगा
जिससे आस थी प्यास बुझाने की
वक्त भी मुझसे मुँह छिपाने लगा
देखा था जिसकी तरफ उम्मीद से

बगिया के फूलों से दोस्ती कर बैठा
आज कुछ काँटो ने छलनी कर दिया
बदन मे घाव भी अनेक उभर आये
अपनों से कैसे लड़ू, छूटे अस्त्र हाथो से

कठिन है राह अगर आज मंजिल की, तो भी क्या
कदम लड़खड़ाये मंजिल आने से पहले, तो भी क्या
रात के अँधियारे से रोशन होगी अपनी सुबह
उम्मीद का सूरज आज फिर उगेगा क्षितिज से

तस्वीर अभी बना रहा हूँ कल के लिए
कुछ रंग अभी इसमे बेरंग से दिखते है
रंग और भी समेटे है मैंने 'प्रतिबिम्ब'
बस अब इन रंगों का मिलना बाकी है

-    प्रतिबिम्ब बड्थ्वाल
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