अब दिलो दिमाग मे नस्तर चुभने से लगे है
दर्द स्याही न बन जाये इसलिए रुक गया हूँ
आज कुछ लिखते लिखते मैं फिर रुक गया हूँ
कहीं कुछ लिख ही न दूँ इसलिए रुक गया हूँ
उड़ा कर धूल, खुद ही हम मैले हो रहे है
झूठ से नाता, सच से हम बेखबर हो रहे हैं
रात से कर बाते, सुबह से अंजान बन रहे है
राज कहीं खुल न जाये इसलिए रुक गया हूँ
विश्वास अब, दुशमन सा घात लगाए बैठा है
स्नेह दिखावे का, अब तीर सा दिल मे चुभता है
रिश्तो मे नाते अब तिनके से बिखरने लगे है
कहीं रिश्ता टूट न जाए इसलिए रुक सा गया हूँ
शब्द तीखे, आंखो से आँसू बन निकल रहे है
बीते लम्हे, अब रोज याद बनकर गुजर रहे है
उठा हाथ, अब खुदा से फरियाद करने चला हूँ
कहीं दुआ कबूल न हो जाये इसलिए रुक गया हूँ
संस्कृति का उड़ा मज़ाक, परिवर्तन समझ रहे है
संस्कारो को भूलकर अपनी उन्नति समझ रहे है
स्नेह छोड़ अपनों से, गैरो को अपना समझ रहे है
कहीं कोई भूल कर न बैठू इसलिए रुक गया हूँ
कतर कर पंख अपने, कैसे हम उड़ान भरने चले है
छोड़ कर हौसला, कैसे हम जीत की सोचने लगे है
बदल कर खुद को, कैसे हम आगे चलने लगे है
कहीं कदम डगमगा न जाये इसलिए रुक गया हूँ
जिक्र अपना करूँ, खफ़ा दुनिया वाले हो जाते हैं
बिछा जाल शब्दों का, लोग बेफिक्र हो जाते हैं
कुछ लिख कर 'प्रतिबिम्ब' मैंने भी सँजो लिया है
कहीं बरसात न हो जायें इसलिये रुक गया हूँ !!!
- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल