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रविवार, 17 जून 2012

वो





मैं इठ्ठला रही थी
वो मुझे शायद देख रहा था
मैं शर्मा रही थी और
वो बस शरारत कर हा था

की बातें
मुझे तरसा रही थी
की अदाये
मुझे बुला रही थी

मैं भी मन
अपना बना चुकी थी
बस के एक इशारे को
हर पल तरस रही थी

दिल की उलझन को
अकेले सुलझा न पा रही थी
वक्त को परख रही थी
प्यार उसके लिए समे रही थी

इशारा मिल ही गया
इंतज़ार को राह मिल ही गई
बसाया जिसे हृदय में
आज उसके हृदय में बस गई ...

[ एक भाव प्रेम की आस से प्रेम के पास तक ]               
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

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