पृष्ठ

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

दिया बुझता है ...



पलट रहा किताब मोहब्बत की
शाम से ही गीत पुराना सुन रहा हूँ
रात की आहट सुनाई देने लगी है
अँधेरे में दिया यादो का जला रहा हूँ

इस रात में कितना शोर है आज
तिमिर घनघोर धरा पर छाया है
मिलता था साथ जिनका रात भर
उन चाँद तारो ने मुंह मोड़ लिया है

जीत का था जिस पर हमें भरोसा
जिन्दगी का वो दाँव हम हार बैठे है
जिन भावो में मिलती थी प्रेम सौगात
वो तमाम एहसास आज हार बैठे है

हर रात, हर बात होती थी उनसे
आज हर बात उनसे अधूरी रह गई
हवा का झोंका महक बिखेरता था
आज हवा भी दिल दुखा के रह गई

इश्क पर फक्र होता था आज तक
अब इसके हर रंग से डर लगता है
रात ख्यालो में कट जायेगी 'प्रतिबिंब'
सुबह के ख्याल से दिया बुझता है

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

रविवार, 16 नवंबर 2014

मुझे लिखना है



मुझे कुछ लिखना है
क्या लिखूं, क्या न लिखू
तुम्ही बताओ क्या लिखू
सच लिखू , या फिर झूठ लिखूं
तुम्हे लिखू या स्वयं को लिखू
तुम्हे लिखूंगा तो सच लिखूंगा
स्वयं को लिखूंगा तो झूठ लिखूंगा
यही तो सच्चाई है आज की
सच दूसरो का लिखना ही भाता है
अपना झूठ तो सदा लिखता आया हूँ
अरे हाँ बुराई भी तो दूसरो की ही नज़र आती है
हम तो खुद को सच्चाई का पुतला मानते है
अंगुली उठाने में आनंद भी तो आता है
खुद को वाह वाही और दूसरे को शर्मिंदगी मिलती है
और हाँ लिखने के बाद एक जीत का अहसास
एवरेस्ट पर विजय पताका फहराने  जैसा
चेहरे पर मुस्कराहट ला देता है
और फिर से एक बार तुम्हे लिखने को तैयार हूँ
- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...