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गुरुवार, 8 जनवरी 2015

कटघरे में पुरुष




एक अप्रिय घटना घटित होती है कही
एक कन्या, एक युवती या एक महिला
किसी विकृत मानसिकता का शिकार हुई
अब हर अंगुली एक ओर इशारा करने लगी
पुरुष प्रधान समाज की बात यहाँ होने लगी

पुरुष साथ खड़ा हो दुष्कर्म की निंदा करता है
पुरुष साथ खड़े हो हर अपराधी को दुत्कारता है
अपने भावो में लेखो में कविता में आवाज उठाता है
किसी भी हद तक जाने को खुद को आगे रखता है
लेकिन महिला समाज की नज़रो में घृणा का पात्र है

महिलाओ के उग्र रूप में निशाना आप ही बनते है
पिता भाई पति दोस्त जैसे रिश्ते अब कहाँ टिकते है
खुद को अबला कमजोर कह पुरुषो से बदला लेते है
माता पिता पर शंका करते,परिवार को दोषी ठहराते है
अपने घर की परिस्थिति को, समाज की नज़र बताते है

नर नारी का भेद बता खुद को सबसे अलग किया
साथ अब भाता नही अकेले लड़ने का ज़ज्बा पा लिया
खुद का घर संभले नही बाकी सबका ठेका ले लिया
खुद रिश्तो में उलझे, दूसरे का रिश्ता भी बिगाड़ दिया
अपवाद का ले सहारा खुद को मासूम करार दे दिया

तो पुरुष समाज किस बेडी में बंधे है आज तक आप
खुद के परिवार को छोड़ क्यों करते हो घिनौना पाप
क्यों हर महिला को एक ही दिखते अपवाद और आप
साजिश के शिकार तो भी, खड़े होते है कटघरे में आप
अपने गिरेबान में झांको, शुद्धिकरण करो अपना आप

-प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

सोमवार, 5 जनवरी 2015

बैचैन मन'



कुंठित हैं भाव
खुदगर्ज है इन्सान
वक्त करा देता पहचान
कौन दोस्त कौन दुश्मन

परिवर्तित है स्वभाव
स्वार्थ हावी रिश्तो पर
रिश्ते उलझे, बने परिहास
टूटी मर्यादा, कटघरे में अस्तित्व

नासूर बन रहा घाव
जख्म दे लौट गया कोई
टीस रह-रह कर उठती कोई
जख्म हरा कर गया फिर कोई

नि:शब्द है अहसास
कीमत वक्त की शून्य हुई
संवेदना मन की निष्क्रय हुई
बोलते अश्क, दूरियां जवान हुई

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

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