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मंगलवार, 31 मार्च 2015

कल [ बीता कल ]




गुजर रहा था मैं कल
गुजरे हुए रास्तो की तलाश में
देखा मील के पत्थर अडिग खड़े
अभी भी मंजिल की ओर इशारा कर रहे  
कण कण राहो का मुस्करा रहा था
शायद मुझे देख उसे कुछ याद आ रहा था
अनगिनत चेहरों में मुझे तलाश रहा था  
कभी हंस देते वो पेड़ो के झुरमुट
मुझे देख अचंभित थी वादियाँ
शोर कर रही थी सुप्त नदियाँ
एक साथ सब पूछने लगे
क्यों लौट आये हो, क्यों लौट आये हो
जो जाता है वो आता कहाँ है
बिछड़ो को कोई याद करता कहाँ है
हैरान है परेशान है क्यों लौट आये हो

मन हुआ रुक जाऊं कुछ देर यहाँ
बीता था मेरा हर एक पल जहाँ
लिपट कर रो दूँ राह के हर साथी से
भिगो लू मन मेरा मिलकर अपनों से  
लेकिन लौट चला यह सोचकर  
कि मेरा संसार अब यहाँ है कहाँ
इन सबसे मैं तो आगे निकल आया हूँ
इन सब को इनके हाल पर छोड़ आया हूँ  
अपने सुखद कल के लिए ‘प्रतिबिंब’
इस कल से रिश्ता तोड़ आया हूँ, रिश्ता तोड़ आया हूँ


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