पृष्ठ

मंगलवार, 23 जून 2015

जल की मछली जल में भली




जिन्दगी बड़ी बड़बोली है भाया, न जाने कब क्या बुलवा दे. क्या क्या लिखवा दे, क्या क्या छपवा दे. मैं कहूं तो मुझे सच लागे, वही बात तू कहे तो झूठ लागे, फरेब लागे. लेकिन एक बात तो है बड़ा लुत्फ़ है जिन्दगी में. अगर ठान ले जीना तो फिर किस माई के लाल की मजाल जो जीना छुडवा दे. लेकिन आज कुछ मूड अलग किस्म का हो रहा दोस्तों. कभी गुमान हो जाता कि लिखना ‘मेरे बाए हाथ का खेल’ परन्तु लिखूं क्या, बायाँ क्या दायाँ हाथ भी साथ न दे रहा. खैर सोच तो हमारी ‘लंगोटिया यार’ ठहरी. सोचते सोचते मुहावरों की दुनिया में दिमाग उछल कूद करने लगा. ये लोग, वो लोग, दोस्त और अपने लपेटे में आ गए. ‘गुड खाए और गुलगुले से परहेज’ तो नही हो सकता न.

यहाँ तो न जाने कितने लोगो की ‘पेट में दाढ़ी’ उग आई है बात बात पर दूसरे को नीचा दिखाने को तैयार रहते अगर उनके मन की न हो तो. अजीब सी दुनिया है यारो कही ‘आँख चार होती है’ कही कोई आँखे बिछाए’ बैठा रहता है. कोई ‘आँख दिखा’ रहा है तो कोई ‘आँख में खटक’ रहा है. कहीं भीड़ थाम्बे नही थमती, कहीं सुनसान पड़ा है हर कोना. पर मोह माया सा ऐसा जाल फैला है कि यहाँ होड़ लगी रहती है. कोई ‘आँखो में उतर’ रहा है तो कोई ‘आँखों से गिर’ रहा है. यहाँ ‘मित्र बहुतेरे’ कुछ तेरे कुछ मेरे.

‘सोसियल नेट वर्किंग साईट’ में महिला दोस्त की हाँ में हाँ मिलाने वाले कतारबद्ध ऐसे खड़े होते है जैसे मंदिर में खड़े हो और प्रसाद इनकी मुंह में सीधा गिरने वाला हो. ज़रा सी आहट हुई नही कि उन्हें ‘अपना उल्लू सीधा करने’ का रास्ता चौड़ा और साफ़ दिखाई देने लगता है. यहाँ ‘धुन के पक्के’ लोग भी है जो ‘चिकने घड़े’ से है उन पर कोई असर होता न दिखे. वे अपनी धूर्तता और नापाक इरादों की चासनी पिलाने का कोई मौका नही छोड़ते. हाँ कछु ऐसे लोग भी है जो ‘राई का पहाड़’ बना उड़ते रहते है और सांत्वना की आड़ में अपना स्वार्थ तलाशने में लगे रहते है. कुछ कामयाब हो जाते है. कुछ को किसी की ‘बुरी नज़र का शिकार’ होना पड़ता है. किसी वर्ग विशेष को ‘कटघरे में खड़ा करना’ कुछ लोगो को आदत है. लोग ‘अपने गिरबान में झांकते’ नही अपवाद को लेकर वर्ग विशेष के लोगो के ‘कपडे उतारते’ है या उन्हें ‘हंसी का पात्र’ बनाते है.   

‘सीमा लांघने’ वालो की भी कमी नही, ‘अंगुली पकडाओ’ तो हाथ खींचने को तैयार. हम ‘अपने मुंह मियां मिठ्ठू’ तो नहीं पर ‘उड़ती चिड़िया पहचान’ लेते है. दिमाग की बत्ती’ आन कर लेते है ऐसे मौसम में और सावधानी का बोर्ड सामने टांग लेते है. भई सामने वाले को सचेत करना भी तो हमारी जिम्मेदारी बनती है. कुछ तो गिरगिट को भी पीछे छोड़ देते है रंग बदलने में लेकिन ‘आस्तीन के सांप’ तो हर जगह ‘केंचुली मार कर बैठे’ रहते है और मौका पाते ही डस लेते है.

राजनीति अब संसद, चुनाव छोड़ लोगो के बीच ‘पैर पसार’ चुकी है. ‘कागजी शेर’ के साथ साथ ‘परदे के पीछे’ से पटकथा लिखने वाले बहुत है ‘पराई आग में हाथ सेंकने’ वालो की कमी नही यहाँ. ‘नया नौकर काम करे बढ़िया’ वाली तर्ज पर साथ जुड़ते है और फिर ‘जिस थाली में खाया उसी में छेद करके’ चलते बनते है. ‘गड़े मुर्दे उखाड़ने’ वाले, ‘तलवे चाटने’ वाले. टोपी उछालने वाले’ अक्सर बिन पैंदे के लौटे’ जैसे मिल जाते है यहाँ. ‘नानी के आगे ननिहाल की बाते’ करते लोग उबते नही. पर लोग काहे नही समझते ‘जल की मछली जल में ही भली’ लगती है.

खैर ! हमारे लिए तो भाया ‘सावन हरे न भादो सूखे’ क्योकि अब ‘जल में रहकर मगरमच्छ से वैर’ कैसा. इसलिए अब अपनी ‘चुप्पी भली’. हमने तो कुछ कहा नही बस दिमाग ससुरा लिखवा देता है कुछ भी.. वैसे अपनी किस्मत ऐसी की ‘ऊंट पर बैठे तो भी कुत्ता काट खाए’. फ़िलहाल तो हम ध्यानमग्न है यहाँ. हम मानते है कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ और जानते है कि ‘सहज पके जो, वो मीठा होय’

-    प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

सोमवार, 22 जून 2015

खुद से प्यार खुद से चाह





यहाँ अब दोस्तों को
दोस्त समझना अतिश्योक्ति होगी
जुड़ जाएगा वो स्वयं ही
जब उसे हमारी जरुरत होगी
मतलब की दुनिया में
वक्त आइना दिखाता है
दोस्त कहने वालो का
असली चेहरा दिखला देता है
डरता हूँ कही मेरे शब्दकोष से
दोस्त शब्द ही न एक दिन हट जाए

हाँ उन्हें अपना कहना बेहतर
जो हर मोड़ पर आते हैं नज़र
मौसम अपनेपन का जहाँ बदलता नही
मुझे लगता वही व्यक्ति विशेष सही
अपना गर पराया बन जाए तो सह लेंगे
दोस्त को दुश्मन बनते कैसे सह लेंगे
अब खुद से प्यार खुद से चाह करूँगा
दूसरो का न कोई अहसान अब लूँगा
अँधेरे में गुम हो भी जाए 'प्रतिबिंब' अगर
जानता हूँ रहेगा अपने साथ ही वो मगर
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...