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गुरुवार, 6 अगस्त 2015

~अब...~





इस कोरे पुराने सड़े गले कागज पर कौन लिखना चाहेगा
नए की चाह लिए जब मन, पुराना कौन अपनाना चाहेगा
खोखले हो गए जो एहसास, कोई दूजा न उन्हें भर पायेगा
प्रेम का धागा जब टूट गया, कोई दूजा न उसे जोड़ पायेगा

मन से दूर कर ही दिया जब, कौन फिर हमसे मिलना चाहेगा
नदी के दो किनारे सा जीवन, मिलन की चाह कैसे रख पायेगा
मौसम से बदल रहे भावो में, कौन रंग मोहब्बत का भर पायेगा
बचा नही दर्द सीने में जब, शेर गजल गीत कौन लिख पायेगा

भूली बिसरी बाते याद कर, कौन खुशियाँ से दूर रहना चाहेगा
नीरस हो गए ज़ज्बात जब, कौन उनमे फिर रस भरना चाहेगा
तोड़ मोड़ कर 'प्रतिबिंब',ये कागज का टुकड़ा कल फेका जायेगा
इस पर लिखे मेरे भाव शब्दों को, कौन भला यहाँ पढ़ पायेगा

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

सोमवार, 3 अगस्त 2015

क्यों ?




पूछ रहे कुछ बिखरे ज़ज्बात
बिगड़ गई है अपनी बात क्यों ?
धड़कन थी हमारी जो कभी
अब वो धड़कन बढाती है क्यों  ?
प्रेम अपना सावन था जहाँ
अब पतझड़ नज़र आता है क्यों ?
कभी एहसास उमड़ते थे जहाँ  
अब उस पल को हम तरसते है क्यों ?
शब्द, भाव, गीत-संगीत गूंजता था दरमियाँ
अब ये नज़र कहीं और आता है क्यों ?
साथ लिख जाते, बिन कहे समझ जाते थे
आज कोई और पढता लिखता समझाता है क्यों ?
उत्तर थे हम तुम्हारे हर सवाल के
आज हम पर ही प्रश्न खड़े है क्यों ?
देर सबेर ही सही वक्त अपना होता था
आज दूरी का जिम्मेदार वक्त बना क्यों ?
हर पल दीदार की थी जहाँ ख्वाइश
आज केवल कर सकते हम फरमाइश क्यों ?
हम पहले होते थे जिस कतार में  
अब आखिर में खड़े उसी कतार में क्यों ?
जानता हूँ हर सवाल का उत्तर तुम्हारे पास है
आखिर इन प्रश्नों को कोरा छोड़ा है क्यों ?

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 


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