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बुधवार, 12 अगस्त 2015

ये रिश्ता



रिश्ते रिसते रहे
एहसास घिसते रहे
जज़्बात पिसते रहे
ख्वाब फिर भी पलते रहे

चाह मुंह देखती रही
दूरी सवाल पूछती रही
अवेलहना जबाब देती रही
रुक, आस फिर भी कहती रही

बीते पल साथ देते रहे
मन को यूं ही बहलाते रहे
सच को झूठ से सहलाते रहे
मुस्कराहट से गम को छुपाते रहे

जुड़ी है डोर कोई अभी भी
इसलिए साँस चलती अभी भी
मैं समझा नहीं ‘प्रतिबिंब’ कभी भी

क्यों दिल सुनता नही, दिमाग की अभी भी 

मंगलवार, 11 अगस्त 2015

मेरी जिज्ञासा तुम हो ....





बचपन का मेरा कुतूहल भी जिज्ञासा था
कुछ जानने की उत्सुकता भी जिज्ञासा था
जहाँ हर अविष्कारों की जननी जिज्ञासा है
वहां आध्यात्मिक रहस्य खोज भी जिज्ञासा है

प्रथम मन में जिज्ञासा का भाव प्रकट होना है
जानने की प्रबल प्रेरणा जिज्ञासा स्तर बढाती है  
दृढ़ संकल्प व् योग्यता जिज्ञासा को सजाती है
जिज्ञासा शक्ति जीवन को गतिशील बनाती है

जिज्ञासा विधि - परक व् निषेध - परक होती है
विधिपरक जिज्ञासा में लोकहित का समावेश है
निषेधपरक जिज्ञासा में अहित भाव प्रबल होता है
सच्ची जिज्ञासा अटल व् अदम्य से भरी होती है  

एक शिकारी अगर शिकार ढूंढें उसे मार्गणा कहते है  
व्यक्ति और वस्तु की खोज अन्वेषणा कहलाती है
जिज्ञासा मानसिक सम्बल बन चुनौती स्वीकारती है
जिज्ञासा कर्मठ साधक का भान करवा सफल होती है

मेरे कुतूहल व् उत्सुकता में उदृत  जिज्ञासा तुम हो
मेरी खोज व् अन्वेषणा में समर्पित जिज्ञासा तुम हो
मेरे विचार व् विमर्श में ‘प्रतिबिंबित’ जिज्ञासा तुम हो

मेरे हृदय व् मेरी गवेषणा में शामिल जिज्ञासा तुम हो. 
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