मेरी तरह का आदमी
हर कोने में गरियाता हुआ
मिल जायेगा, ढूँढना नहीं पड़ता
कुछ समाज से जुड़ी बातें
खीजता मन
और पीड़ा का स्वर लिए
लुभावनी बातें और ज्ञान बांटता
बस
छिपा कर बैठा है खुद का मन
जिन्दगी में कई छेद है
अच्छा लगता है
इन छेदों से निहारना
शब्द निकलते हैं
कलम चलने लगती है
तब
प्रेम कलम की स्याही थी
जो शायद अब सूखने लगी
बात बात पर अब
ये पन्ने शिकायत करते हैं
मोहब्बत तलाक मांगती सी
हर आहट सन्देश की
धीरे - धीरे मौन हो रही है
अच्छा है
जितना जल्दी कोई पहचान ले
जिसने पहचान लिया
उसने
कब का किनारा कर लिया
तुम अब तक क्यों
लंगडाते हुए साथ चल रहे
मेरी खुशफहमी के लिए
गलतफहमी का शिकार हो गए
अपनत्व के जाल में फंस गए
फिर भी मैं ढीठ हूँ....
अपनों को समझने का
उनसे मोहब्बत का
बुरा ख्याल मन में लिए
चल रहा हूँ, तुम्हारे साए में ही
अपने 'प्रतिबिम्ब' को छलते हुए
एक और आकाश
एक और धरती
एक और इंसान
एक और चेतना का भास लिए
शून्य से शतक की ओर
तपिश और बौछार की जुगलबंदी
एक नए गीत की ओर ......
चलोगे क्या साथ इसे गुनगुनाने ....
- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
०१.०१.२०१६