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बुधवार, 28 दिसंबर 2016

अंतिम रचना



अंतिम रचना....

अब समय आ गया है
कलम को विराम देने का
विचारों पर पूर्ण विराम लगाने का
इस वर्ष
कभी थोड़ा, कभी बहुत लिखा
और क्या क्या न लिखा
कभी उसने जो कहा या किया
दिल ने जो समझा लिख डाला
कभी मैंने जो सोचा या समझा
कभी तुमने जो लिखवाया 
अच्छा - बुरा जो देखा
बस लिखता रहा
कही- अनकही समेट कर
शब्दों के तराजू में तोलकर
भावों से मोल भाव कर
खरीद लिए पाठक दो चार 
स्वयं को पढ़
स्वयं की पसंद बन 
चित्रों को उकेरता रहा
बन कर स्याही
कही दर्द, कहीं प्यार
कोरे पन्नों पर परोसता रहा
दौर और बदलाव का साक्षी बन
अपने इन हाथो से गवाही देता रहा
न जाने कितनो को आहत किया
दोस्त दुश्मन का पैमाना बना
कुछ को साथ कुछ को दूर कर दिया
न्याय अन्याय की लेकर अपनी समझ
फैसला
कभी पक्ष, कभी विपक्ष में लिखता रहा 
अंगुली उठाई भी और मोड़ी भी 
किसी को सम्मानित
किसी को अपमानित किया
कलम को कभी हथियार
कभी पतवार बना
सामजिक उतार चढ़ाव
का रेखांकित कर दिया
खुशी और गम को
जिन्दगी के रंगो से रंग दिया
वक्त को बादशाह करार दे
नियति का दामन थाम लिया
हार-जीत की परवाह किये बिना
सफलता असफलता लिखता रहा 
आपको
कितना सच कितना झूठ लगा
कितना पसंद कितना नापसंद किया
कितने करीब कितने दूर हुए
कितने अपने कितने पराये हुए
नहीं जानता 
बस इतना जानता हूँ
हर शब्द हर भाव
दिल से लिखकर
समर्पित कर दिया आपको

लेकिन
इस अंग्रेजी नववर्ष के अंत में
अपने शब्दों को
अंतिम रचना समझ
२०१६ को अर्पित कर
अब अलविदा कहता हूँ
हाँ खट्टा मीठा याद रहेगा
लेकिन विश्वास
नए साल में
नया सृजन, नई सोच
"मेरा चिंतन"
मेरा 'प्रतिबिम्ब' बन
'क्षितिज' की दूरी तक
इन्द्रधनुष सी आभा लिए
हर शब्द और भाव की किरण
मेरे अपनों तक पहुँचती रहेगी
मेरा अस्तित्व
परिणाम का मोहताज़ नहीं
बस लिखूंगा कहूँगा वही
जो लगेगा अंतर्मन को सही
शुभम .....

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल  २७/१२/२०१६

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

वक्त का साया









वक्त का साया
स्वर्ग नरक खाई से
भी अलग
कई गुना गहराई तक
दफन कर देता है
हर उम्मीद
हर हौसले
हर जज्बे
की तड़फती चीख को

मानवता
दम तोडती हुई
निवस्त्र कर देती है
इंसानियत के ओढ़े हुए
आवरण को....
धोबी के कुत्ते सा
न घर पर न घाट पर
ला कर पटक देती है
और
बेजुबान कर देते है
वक्त के तीखे ज़ख्म...
झुलसता जाता है
रोम - रोम बिखरता
टूटता - कराहता हुआ
रेंगते हुए
अनिश्चितकाल के आगोश में
दुबक कर बैठ जाता है...

दिखाई तो नहीं देती
लेकिन सुनाई देती है
एक चीत्कार
जो खुद से निकल
खुद में ही समाधि लेती है
आस पास भीड़
बहरी हो कर
नपुंसक बन जाती है
उनके मन के कोने में
ताली पीटते एहसास
खुद को राजा
दूसरे को रंक समझ लेते है
जीत का काला झन्डा
आँखों के सामने
तांडव करते हुए
खिलखिलाहट करता हुआ
नस्तर चुभोता जाता है

कौन भागीदार
कौन चौकीदार
कौन अपना
कौन पराया
शतरंज की बिसात पर
चाल चलते...
पाप पुण्य की परिभाषा से अलग
अपने ओहदे की गरिमा का
नाज़ायज प्रदर्शन करते
मुंह में राम बगल में छुरी
मुहावरे को सत्यापित करती
सैंकड़ो बेदर्द आत्माए
वक्त के आगोश में सिमट
मीठे जहर सा फैलता हुआ
मेरे अस्तित्व को ‘प्रतिबिम्ब’
मिटाने की
चेष्टा करता हुआ
वक्त का साया ...

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल  १८/१२/२०१६

मंगलवार, 13 दिसंबर 2016

रुक




रुक .....

रुक, जाते कहाँ हो,
माना कि अब
दिल मुझसे भर गया है
लेकिन कुछ तो
अभी भी मेरे लिए होगा
तेरे दिल में
कुछ अधूरा सा प्यार
या पूरी तरह नफ़रत

कुछ पल ही सही
तू ठहर भी जा
न जाने फिर
कब मुलाक़ात होगी
कब तुमसे फिर बात होगी
ज़रा रुक कुछ कहने सुनने से  
शायद तुम समझ पाओगे
या मैं समझ पाऊंगा
टूटते रिश्ते की हकीकत

मुझमें लाख कमी सही
पर तुझमें भी धैर्य नहीं
साथ न सही
आ किनारा बन जाओ
सूखी दरिया को
एहसासों से लबालब भर दे
हमारे रिश्ते को
इन्हीं किनारों में
समेट ले
बाकी हमारी किस्मत


-          प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

रविवार, 20 नवंबर 2016

कर समर्पण



आनंदित मन से
धर्म कर्म का कर अनुसरण
नित्य पढ़ समझ कर 
शब्द भावो का
कर हृदय में अनुकरण
बना कर उसे संस्कार
पहले राम नही हनुमान बन
कर समर्पण ....

गहराई में उतर
लेकर ज्ञान अर्थ का
भावार्थ का कर संज्ञान
स्वयं में कर रूपांतरित
उलझ नही सुलझ कर
सुन कर नही समझ कर
पहले कृष्ण नही अर्जुन बन
कर समर्पण....

प्रेम का अहोभाव लिए
प्रतिरोध का कर विरोध
शून्य कर चित्त को
चैतन्य को प्राप्त कर
गुजर कर अग्नि से
इर्ष्या का कर अंतिम संस्कार
गुरु नही पहले शिष्य बन
कर समर्पण ....

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २०/११/२०१६

मंगलवार, 8 नवंबर 2016

भीड़




भीड़ का बोलबाला है 
वरना लगा सब जगह ताला है 
चाहे दुकान हो या रिश्ते 
भीड़ का अनुसरण कर
इंसान बिक जाता है
इंसान बिछ जाता है
इंसान भीड़ का सत्य नही जानता
लेकिन भेड़चाल में कदम मिला
अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है
भीड़ क्या कहती है
भीड़ क्या सुनती है
भीड़ क्या चाहती है
इंसान ने स्वयं को भीड़ के
आकर्षण वाले खूंटे से बाँध लिया है
फिर चाह कर भी मुक्ति नही मिलती
क्योंकि यह खूंटा बाहर ही नही
अंदर भी पेंठ बना लेता है
भीड़ में आप हो,
या भीड़ आपके लिए हो
दोनों ही
एक दूजे के परिचायक नज़र आते है

मैं इसी भीड़ का हिस्सा हूँ
यह जानते हुए भी
कि
भीड़ तो भ्रम है
भीड़ तो मिथ्या है
लेकिन
कल इसी भीड़ को
अपने लिए खड़ा करना चाहता हूँ
अपने साथ देखना चाहता हूँ
बिकता है इंसान
केवल पैसो से नही
भावो और स्वार्थ की
महंगी बोली लगती है यहाँ
टूट जाते है रिश्ते
दल बदलू नेताओं की
आत्मा लिए रिश्ते
बस नेता की तरह
अभिनेता बनना सीख लो
भीड़ को खुद से जोड़ लो .......

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ८/११/२०१६




गुरुवार, 3 नवंबर 2016

सत्य




यहाँ वहां
शब्दों के जंगल है
भटकता हुआ 
मैं न जाने कब
शब्दों की लटाओं में
उलझता चला गया
शब्दों के जाल
अहंकार के धागे संग
आकांक्षाओं से लिप्त
शायद
सत्य की खोज में.....

सत्य और झूठ को
परिभाषित करते हुए
शब्दों की लम्बी लाइन
अपना अस्तित्व
तलाशते हुए नज़र आई
ज्ञानी का भ्रम पाले
अधूरे को पूर्ण समझ
मन में बसे अन्धकार को
शब्दों की रोशनी में
हटाने का असफल प्रयास

और
स्वार्थ की पराकाष्ठा
का मार्गदर्शन लिए
शब्द
गुनाह करते चले गए
सत्य को
झूठ के तराजू में तोलने
की चेष्ठा करने लगे
और सत्य को
अपने अधिकार में
लाने की सोचने लगे

फिर भी 'सत्य'
कोसो दूर
मैं अज्ञानी समझ न पाया
सत्य विराट होता है
उसे सिद्ध करने के लिए
प्रमाण की नही
समर्पण की आवश्यकता है
शब्दों की नही
मौन की आवश्यकता है
सत्य को पाने के लिए
लड़ना नही पड़ता
कहना नही पड़ता
उससे तो हारना पड़ता है
उसके आगे
समर्पण करना होता है
अपने 'प्रतिबिम्ब' को
पहचानना होता है

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ३/११/२०१६

सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

मिलन




सच है
जैसी हमारी दृष्टी
वैसी ही सृष्टि नज़र आती है
और
प्रकृति में ही छिपा है परमात्मा
उस प्रभु से, उस परमात्मा से
से मिलना हर कोई चाहता है
प्रकृति को छोड़
देवी देवताओं - सबकी चापलूसी करते है
असंख्य मिन्नतें कर
अपने लिए पाना चाहते है
तेज गति से
धन. पद. प्रतिष्ठा पाना चाहते है

हम आज
औपचारिकता पूर्वक
अराधना, पूजा और अर्पण कर
रीति रिवाजो को दोहरा कर
प्रभु से मिलने का
उसकी अनुकम्पा का
सहज मार्ग ढूंढना चाहते है
बस हृदय से आवाज़ नहीं उठती
हृदय से समर्पण नही है
हृदय में सच्चाई नही है
सत्य होना ही समर्पण है
जो हो वही रहना ही सत्य है

हम
अंतकरण में अँधेरा रख
बाहर उजाला करना चाहते है
जबकि
झूठ का तिलिस्म स्वयं को
स्वयं से दूर करता है
समर्पण के लिए
मन में बसे
हर आवरण को हटाना जरुरी है
उसके अंदर छुपे हर मुखौटे को
उतार फेंकना जरुरी है
स्वयं को शून्य कर
पूर्ण तक पहुँचा जा सकता है
सत्य को पाया जा सकता है
फिर परमात्मा यानि अंतरात्मा से
श्रद्धा सहित मिल सकते है
इस मिलन का होना ही
पूर्ण होना है ......


-    प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ३१/१०/२०१६

बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

आओ दीप जलाये ....




डर लगता है अँधेरे से
अंधकार के नाम से ही
हर भय इसमें समाहित हो जाता है 
और अंधेरो से दूरी बनाने में
हम सफल हो जाते है....


रोशनी की आवश्यकता है
तुम्हे भी – मुझे भी
इस अन्धकार से
अंत:करण की कालिमा से
मुक्ति दिलाने के लिए .....

मन की अनुकूलता
सुख का आभास कराती है
और प्रतिकूलता
दुःख के पहाड़ बनाती है...

आलस्य से सराबोर
और भागती जिन्दगी में हम
विकल्प खोजते नज़र आते है
लेकिन अपनी संकल्प शक्ति
हम खोते जा रहे है ...

मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार
पर भी छाया है मायाजाल का अन्धकार
आओ हम
अज्ञान, अधर्म, असत्य, अनीति और अन्याय
का मिटा कर अंधियारा
ज्ञान, धर्म, सत्य, नीति और न्याय
का दीप जलाए ..

कर संकल्प
अपनी कल्पना को साकार बनाये
मन के सच्चे ‘प्रतिबिम्ब’ को
अस्तित्व की कसौटी पर खरा उतारे
आओ निष्ठापूर्वक ये दीप जलाए

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २६/११/२०१६

रविवार, 23 अक्तूबर 2016

समझौता





एक लम्बे अंतराल के बाद
अंधेरो के आँचल से निकल
सूरज की किरणों से
लेकर चला था
कुछ रोशनी
और
एक योद्धा की  तरह
हौसलों का चौड़ा सीना लिए
कर्तव्य मार्ग पर
नैतिकता के
कठोर धरातल पर
ईमानदारी के पग भरते हुए
लक्ष्य को भेदने का
मूल्यों का अचूक अस्त्र लिए
चल पड़ा था .....

उजाले में भी
किस्मत का पत्थर
ठोकर दे गया
उम्मीद का घड़ा
टूट मिटटी में मिल गया
और
दोष मेरे सर मढ़
अंतर्मन को नियंत्रित कर
मुझे कटघरे में खड़ा कर गया...


मेरे अस्तित्व को
मिटाने की सुपारी लेकर
वक्त
किस्मत की आड़ में छिप गया
और किस्मत
साँसों को उनकी उम्र के सहारे छोड़
हंसती खिलखिलाती
मेरे जख्मो को हरा करती रही
और वेदना चुपचाप
सिसकती रही
आज शिकायत ने
वक्त और किस्मत की
साजिश से समझौता कर लिया


-      प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
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