जीवन यात्रा की
शुरआत
इस जन्म में
प्रारब्ध के
निशान
जन्म को प्रभावित
करते है
परिवार और
संस्कार
तो यहाँ विरासत
में मिलते है
शिशु लीला खुद की
और
शिक्षा व् संस्कार
की जिम्मेदारी
उठाता
परिवार
और इन्सान स्वयं
बन जाता
परिवार का
प्रतिबिम्ब ....
कहीं संघर्ष कही
अमीरी
ख़्वाब की महकती
बगिया
लक्ष्य, एहसास बनते बिगड़ते
कोई तपता
जलता अंगारों सा
कोई तैरता
सहज लग जाता
किनारे
और
हर स्थिति
परिस्थिति में
कठिन सरल के गणित
संग
जिंदगी की
अर्थव्यवस्था को
ढ़ोता रहता
गधे और घोड़े सा
तुम और मुझ जैसा
हर इन्सान
........
\
समाज का
अंग बनते भी
देर नही लगती
समाज भी
देर नही लगाता
अपनाने में,
सिखाने में,
रिश्तो में बना,
बंटा बिखरा समाज
स्वार्थ से भरपूर,
न चाह कर भी
मजबूर
बस कोई राह पा
लेता है
कोई चाह रख चलता
जाता है
मंजिल की ओर
या फिर
मंजिल की तलाश
में
निरंतर ......
इस पर भी
मन की संतुष्टि
कब थाह लेती है
राजा हो या रंक
एक के बाद एक
स्वपन देखते हुए
किसी उद्देश्य
हेतू
कदम ताल करता हुआ
बेसुध इन्सान
भटकता हुआ
मृग तृष्णा की
भांति
लालच का जाल
फांसने लगता है
और इंसान का
पल प्रतिपल
बदलता स्वरूप
अपने को ही
भूलने लगता है
इंसान............
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २२/०१/२०१६
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " "जिन्दगी जिन्दा-दिली को जान ऐ रोशन" - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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