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गुरुवार, 14 जनवरी 2016

ये दुनिया, ये महफ़िल .......





ये दुनिया ये महफ़िल
रिश्तो की जहाँ चढ़ती बलि
कुछ पाने के लिए
सब कुछ खोने को है तैयार
अतीत का स्वर्णिम इतिहास
रिश्तो की गरिमा को
भूलता चला जाएगा
नेपथ्य में होगी सिसकती वेदना
कोई न चाहते भी
गुनगुनाएगा
“ये दुनिया ये महफ़िल
मेरे काम की नही”
या
“हम छोड़ चले है ..... “


अपने तर्क/कुतर्क तो
है सबके पास
अपना दामन
पाक साफ़ दिखाने के लिए
कीचड तो अक्सर
दूसरो पर ही उछाला जाता है
मैला हो तो, सही
मुक्ति का मार्ग तो निकलता है
दूसरी राह की ओर
अग्रसर होती मनस्थिति
न जाने
बरसो समेटा रिश्ता
दरार की भेंट चढ़ जाता है

एक ओर है
भावनाओ का बहता संसार
दूसरी ओर है
मौन बनकर खड़ा उत्तर
परिस्थितियां विरोध करती है
मनस्थिति फिर दूर करती है
चाहे अनचाहे किसी को
स्वीकारना पड़ता है
बिछोह, विरह और अकेलापन

एक तरफ चाहत
दूसरी तरफ होता कोई आहत
भावनाओ और जिद्द के बीच
चलता हुआ अघोषित युद्ध
शायद हार जीत के फैसले तक
हर चिंगारी
आग बन झुलसाती रहेगी
शब्दों के वार बेहिचक
इसमें आहुति देते रहेंगे
इस कठोर यज्ञ के बाद
शायद धुंआ फैलेगा
और ले जाएगा अपने साथ
हर छोटे छोटे एहसास और
वो रिश्तो की दुहाई देती
वो मध्यम होती आवाज़
कहीं गुम हो जायेगी ...........

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल  १४/१/२०१६

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