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शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

चीख .....







बचपन की याद
अब आती नही
उलझ कर
सर से पैर तक
आज में
जकड़ा हुआ हूँ
अपने ही जाल में
तहजीब और
शराफत की खाल में  
लूटना चाहता हूँ
किस्मत को
और हाँ सच
बदलना चाहता हूँ
किस्मत को
और जिन्दगी के
इस रंगमंच से
जुड़े कई अदाकारों को
जो घावो को
हरा करते है
जख्म को
नासूर बनाते है

बचपन से बावन 
कम उम्र हुई
समझ नही पा रहा
अपने से ज्यादा
दूसरो को तवज्जो देने का
खामियाजा तो
भुगतना ही है
काले से
सफ़ेद होते बाल भी
मुझे चिढ़ाते है
आजकल हँसना
सीख लिया है उन्होंने
मेरे सामने ही मुझे
गलतियों का बादशाह
कह कर
ताज पोशी करते है


बचपन का जिक्र
अब होता नहीं
अनुभव के आगे
रेंगता बचपन
बहुत आगे
निकल आने का एहसास
लौटने की ख्वाइश लिए
दम तोड़ता वो बचपना
उम्र का सामाजिक रोड़ा
दिल से बगावत करता 
और उस पर झूलती
तमाम ख्वाइशे
बिन पैंदे के बर्तन सी
गीली लकड़िया
जलने को आतुर
कहीं आग
और कहीं ख़ाक
बस निकलती है 
एक आह
अन्तर्मन की चीख लिए ......

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल  ५/०२/२०१६ 

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