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सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

मुक्त किया ....




स्वार्थ से भरपूर
एक रिश्ता
रिश्ते में जुड़े
कुछ कहे अनकहे
एहसास
रिश्तो से
मुक्ति पाना
कब सहज हुआ है
जब तक स्वार्थ
सर्वोपरी न हो

कल तक एक सोच
बहुत कुछ एक सा
महसूस होता था
साथ एक दूजे का
भला लगता था
और आज
अपने लिए
केवल अपने लिए
एक सुबह
आत्मबोध हो जाना
अपनत्व और प्रेम
से सजाये सँवारे  
रिश्ते की बलि चढ़ा कर
कुर्बानी और त्याग को
अपने हिस्से में डाल
मुक्ति देने का
मिथ्या परोपकार
मुक्ति पाने का
एकमात्र हथियार
जो खंडित करता है
रिश्तो की बुनियाद को
और होती है फिर
एक रिश्ते की
एकतरफा
दर्दनाक मौत...

अपराध बोध
किसे नही होता
लेकिन रिश्ते में....
जिसे हम खुद ही
सींच कर
इतना बड़ा होने देते है
जिम्मेदारी और
परिपक्वता के सामंजय से
सीमाओ का निर्धारण
भी खुद तय करते
फिर
अपराध कैसा?

क्या ऐसे ही
अन्य रिश्तो को
त्याग कर
हर बार
एक नया
आत्मबोध
अगले रिश्ते की
तलाश तक
पीछे मुड़ कर
न देखने की प्रवृति
शायद
कठोर निर्णय लेने में
सहायक होती होगी
और मुक्ति
आसान लगती होगी ....

एक रिश्ते की
बैमौत मौत
सुनहरे अक्षरों में
लिख दिया जाता है 
'मुक्त किया'
इस मौत का 
संस्कार नही होता
बस रिश्ता
दफन हो जाता है
दर्द किसी को
खुशी किसी को
नसीब हो जाती है ....


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल  ८/२/२०१६

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