दुखों के विस्तार को
कसौटी पर कसती
अनेक आँखे और अनगणित मन
एक भाव स्थापित
और सज़ा का एलान
जुर्म और एहसास के बीच
भावनाओ का अघोषित युद्ध
जीत हार तय नही
बस
अस्त्र शस्त्र हाथो में
चमकती उनकी धार
करने को तैयार वार
जुर्म का बोध कराती
अपनी ही बिरादरी
कड़क स्वर से
अंगुली उठाते
वो तमाम घुसपैठिये
जो न जाने कब से
मुझमें स्थापित हो चुके है
मेरा मन
विस्थापन को मजबूर
आत्मविश्वास कभी
शून्यता को पकड़
विलीन हो जाना चाहता है
कभी एक डोर हौसले की
मुझे ऊंचाई पर छोड़ देती है
वहां भी अकेले डर लगता है
ऊंचाई से गिरने का भय
दर्द और विस्थापन
समाज का बोझ ढोने में नाकाम
पीड़ा के चीखते लफ्ज
किसी के
कानो से होकर नही गुजरते
खोखले समाज में गूंजती आवाज
लौट आती है
फिर खुद के कानो से टकराकर
नेपथ्य में विलीन हो जाती
है
मन और शरीर
निर्वासन का दंश लिए
तकते रहते है
अपने ही पाले हुए
उन पालतू जानवरों को
जो अब नोचना सीख गए है
और हम उनके बीच रहकर
खुद को
इंसान समझने की भूल कर रहे
है
- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल १३/३/२०१६
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " बिजय बाबू, बैंक और बेहद बुरी ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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