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शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

दोषी कौन ....




अपनी हस्ती की 
तख़्ती लटकाये लोग 
जगह जगह 
किसी भीड़ का हिस्सा है 
अपना वर्चस्व बनाये रखने 
संवारने की कोशिश में
नापाक इरादे भी 
नेक आवरण में 
परोसकर 
तमाशा देखते है

पापी भी 
फल की चिंता में
पुण्य की आस में
हमारे बीच मौजूद है 
स्वार्थ सिद्ध करने हेतू 
राम राम जप कर 
खंजर भोकने को तैयार 
और हम 
जानकर भी अंजान
शायद 
आदत हो गई
या फिर बना ली है
क्योंकि हम भी 
उसी भीड़ 
उसी समाज
का आइना तो है
जिसमे ये प्रवृति 
फल फूल रही है

कुछ समझ पाये क्या 
कौन है वो 
पहचान लिया क्या
उस गुनाहगार को
या 
उस मित्र या
रिश्तेदार को 
या खुद ही 
अपने अंदर झांकने लगे
और खुद को भी 
मेरी तरह ही
आपने 
दोषी करार दे दिया है

-    प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २०/१/२०१६

प्रतिबिम्ब .......






जीवन यात्रा की शुरआत
इस जन्म में
प्रारब्ध के निशान
जन्म को प्रभावित करते है
परिवार और संस्कार
तो यहाँ विरासत में मिलते है
शिशु लीला खुद की
और
शिक्षा व्  संस्कार 
की जिम्मेदारी उठाता
परिवार
और इन्सान स्वयं बन जाता
परिवार का प्रतिबिम्ब ....

कहीं संघर्ष कही अमीरी
ख़्वाब की महकती बगिया
लक्ष्य, एहसास बनते बिगड़ते
कोई तपता
जलता अंगारों सा
कोई तैरता
सहज लग जाता किनारे
और
हर स्थिति परिस्थिति में
कठिन सरल के गणित संग
जिंदगी की अर्थव्यवस्था को
ढ़ोता रहता
गधे और घोड़े सा
तुम और मुझ जैसा
हर इन्सान ........
\
समाज का
अंग बनते भी
देर नही लगती
समाज भी
देर नही लगाता
अपनाने में,
सिखाने में,
रिश्तो में बना,
बंटा बिखरा समाज
स्वार्थ से भरपूर,
न चाह कर भी मजबूर
बस कोई राह पा लेता है
कोई चाह रख चलता जाता है
मंजिल की ओर
या फिर
मंजिल की तलाश में 
निरंतर ......

इस पर भी
मन की संतुष्टि
कब थाह लेती है
राजा हो या रंक
एक के बाद एक
स्वपन देखते हुए
किसी उद्देश्य हेतू
कदम ताल करता हुआ
बेसुध इन्सान
भटकता हुआ
मृग तृष्णा की भांति
लालच का जाल
फांसने लगता है
और इंसान का
पल प्रतिपल
बदलता स्वरूप
अपने को ही
भूलने लगता है

इंसान............

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २२/०१/२०१६ 
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