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शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

एक सुबह एक ख्याल



आज सुबह

फिर कुछ कह गई
कौन हो तुम
पूछ कर हंसने लगी

परिहास पसंद है
लेकिन
सुबह की लालिमा से नही 
जो मेरा दिन तय करती है
जिसके आते ही
मेरे सपनो को
पंख लगते है
आशाएँ उड़ान भरती है
जीवन को गति मिलती है
अंधियारे से निकलती
वो रोशनी की किरण ही
जब सवाल पूछने लगे
मुझे देख हंसने लगे



जब भी
अंधियारा घेरता है
बस एक सुबह का ख्याल
जीवन देता है
आज उसी को मुझ पर
हँसता देख
मूक हूँ अचम्भित भी
खुद पर सवालों का
तूफान बरसाने लगा
किस्मत कोसने लगा
किसका बुरा किया
सोचने लगा
हर नाम और काम
बस मस्तिष्क पटल पर
उदृत होने लगे
सही को भी गलत
ठहराने का विफल प्रयास
भी मेरी जिज्ञासा को
शांत न कर पाया 

आखिर चटक धूप ने
फिर दस्तक दी
और मेरे तन मन से
मिलकर बस इतना कहा
चलो मैं तुम्हारे साथ हूँ
वक्त तो मुझे भी नही छोड़ता
कभी यहाँ कभी वहां
चलता जाता हूँ
लेकिन जब तक हूँ
तुम्हारे साथ हूँ 
बस चलते जाना
अंधियारा फिर आएगा
लेकिन मैं भी फिर आऊंगा
बस इतना ख्याल रख
आगे बढ़ते जाना .....

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ६/२/२०१६ 

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

चीख .....







बचपन की याद
अब आती नही
उलझ कर
सर से पैर तक
आज में
जकड़ा हुआ हूँ
अपने ही जाल में
तहजीब और
शराफत की खाल में  
लूटना चाहता हूँ
किस्मत को
और हाँ सच
बदलना चाहता हूँ
किस्मत को
और जिन्दगी के
इस रंगमंच से
जुड़े कई अदाकारों को
जो घावो को
हरा करते है
जख्म को
नासूर बनाते है

बचपन से बावन 
कम उम्र हुई
समझ नही पा रहा
अपने से ज्यादा
दूसरो को तवज्जो देने का
खामियाजा तो
भुगतना ही है
काले से
सफ़ेद होते बाल भी
मुझे चिढ़ाते है
आजकल हँसना
सीख लिया है उन्होंने
मेरे सामने ही मुझे
गलतियों का बादशाह
कह कर
ताज पोशी करते है


बचपन का जिक्र
अब होता नहीं
अनुभव के आगे
रेंगता बचपन
बहुत आगे
निकल आने का एहसास
लौटने की ख्वाइश लिए
दम तोड़ता वो बचपना
उम्र का सामाजिक रोड़ा
दिल से बगावत करता 
और उस पर झूलती
तमाम ख्वाइशे
बिन पैंदे के बर्तन सी
गीली लकड़िया
जलने को आतुर
कहीं आग
और कहीं ख़ाक
बस निकलती है 
एक आह
अन्तर्मन की चीख लिए ......

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल  ५/०२/२०१६ 
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