पृष्ठ

शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

अपनी मौत.... ( रिश्ते )




अपनी मौत
खुद मरो,
क्यों नाहक
परेशान करते हो
किसी को किसी से 
न लेना है न देना है
फिर क्यों एक ग्रहण बन
किसी की जिन्दगी में छाये हो
हाँ उगता सूरज सबका होता है
ढलता सूरज तो अन्धयारे समान है
क्यों उस अँधेरे में कोई
जानबूझकर रहना चाहेगा
खुद को
उस अन्धकार में धकेलेगा
जबकि नया सूरज
बाहे फैलाये
उसका इंतजार कर रहा 

स्वार्थ
हाँ स्वार्थ ही कहना उचित होगा
जब कोई केवल और केवल
अपने लिए सोचने लगे
अपना हित देख
दूसरे के भावो को अनदेखा कर
सोच पर ही अंगुली उठाने लगे
जब तक इंसान का स्वार्थ है
प्रेम है रिश्ता है आशा है विश्वास है
स्नेह है आदर है एहसास है भाव है
दूसरी राह मिलते ही
नए संबंध जुड़ते ही
सब धरा का धरा रह जाता है
सब कुछ खंडित लगता है, 
वायदे अस्तित्व खो देते है
पुराने एहसास बिखरने लगते है 
पल पल का साथ छूटने लगता है
शब्द भाव जो अभिव्यक्ति थे
वो अब 
दीवार बन खड़े होते है

और
तोड़ दिया जाता है
रिश्ते की आधार शिला को
छोड़ दिया जाता है
वक्त के भरोसे
टूटकर खंडहर बनने के लिए
यही नियति भी है शायद
खोखले रिश्तो की

बस
कुछ शब्द कह कर
खुद ही उसे गंगाजल समझ
पी लेते है लोग
अब तक के सभी पापो से
जैसे
मुक्ति का मार्ग मिल गया हो
और कुछ बचा हुआ गंगाजल
दूसरे पर छिडक
उसे एहसास करा दिया जाता है
तुम भी पापी थे
अब तुम्हारा भी उद्धार
मेरे साथ साथ ....

कोई रिश्ते को जीना चाहते है
कोई रिश्ते को तोड़ना चाहते है
लेकिन भूल जाते है लोग
वो साथ और वो एहसास
जो बरसो में बनते है
तोड़ने के लिए एक पल बहुत है
और हो जाती है
एक रिश्ते की अपनी ही मौत.....


-      प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल  २०//२०१६ 

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

मेरी पीड़ा...

\

फडफडा रहा
मन का रोम रोम
कुछ लिखने को आतुर
बैचेन मन की पीड़ा
आज 
समझ नही पा रहा
देश भक्ति लिखूं
या फिर देश द्रोह लिखूं
परिवार और स्वार्थ से अलग
बलिदान देते सैनिक
या ओछी राजनीति
पर छाती पीटते नेता
दोनों मेरी नही सुनते
न मुझे पढ़ पाते
एक को तो जूनून है
देश पर कुर्बान होने का 
एक को धर्म
और राजनीति से फुरसत नही

हाँ जनता, आप है
जिन्हें मैं
पीड़ा अपनी कह सकता
लेकिन डर लगता है
आपके चश्मे से
इनमे भी नज़र अब
सीमित हो गई है
राजनीति ने इस चश्मे को भी
मैला कर दिया है
अपना ही दृष्टीकोण
फिट कर दिया है
छणिक भर
खून खौलता दिखता है
तेवर आसमान पर चढ़े लगते है
बड़ी बड़ी बाते
बहस और
गाली गलौच आम हो गया है
धरातल पर सच कहूं
आप न देशभक्त है
न देशद्रोही
आप केवल और केवल
कठपुतली है
फिर किसे अपनी पीड़ा कहूं
जो लिखना चाहता
उसे किसे पढने को कहूं
आपने फर्क करना छोड़ दिया है
अभिव्यक्ति को हथियार बना
टुकड़े टुकड़े कर बाँट दिया है
बहुसंख्यंक भाव को अधिकार
न कहने का, न कुछ करने का
अल्प्संख्यंक भाव को आज़ादी
मातृभूमि को बेचने की
मातृभूमि को कोसने की

सोचा है
मेरा देश का जवान
जिसका कोई धर्म नही
जिसकी
सिर्फ भारतीयता पहचान है
वो
कैसी मौत मरता होगा
जब वो ये सब सुनता होगा
जिसके अपने ही
मातृभूमि से बगावत करते होंगे
जिसके अपने ही
उसे दुश्मन नज़र आते होंगे

हाँ लिखना तो देशभक्ति चाहता हूँ
पर सब में देशद्रोही नज़र आता है
बस यही पीड़ा है मन में
इसलिए मेरे देश के शहीदों
हालात और तुम्हारी कुर्बानी तक
इस बीच
तुम पर कुछ लिख नही पाया
लेकिन तुम्हारी पीड़ा
मेरी पीड़ा एक सी है

- प्रतिबिम्ब  बड़थ्वाल १७/२/२०१६


मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

~चलो अब बड़ा हो जाऊं ~



सुना करते है अक्सर
दिल तो बच्चा है
पर क्या सच है ?
बचपन बीतने के साथ
सब त्यागना पड़ता है
चाहे हो
बचपन का निश्छल प्रेम
हल्की फुल्की शरारते
तुतला कर कुछ मांगना
अपनी पसंद का बालहट
जिद्द और चाह से
अनजाना मन
अपनों के प्यार के लिए
सरपट दौड़ता वो बचपन
अपनों की पहचान करता
मासूम चेहरा
गोदी में वो सुख का एहसास
आस पास खिलौनों का संसार
खिलौनों को जीवंत मानता
उनमे खुशी ढूंढ लेना
खिलौना कोई उठा ले  
या तोड़ दे
तो आसमान सर पर उठा लेना
किसी को हक़ से अपना कहना
अन्य बच्चो के साथ मैदान में
उसमे झूलता और खेलता बचपन    


तमाम बाते या
या कुछ अनकही बाते ही
तो है बचपन की
लेकिन बचपन गुजरते ही
छोड़ना पड़ता है
इन सब बातो को
जीवन के अन्य पड़ाव में
बीता बचपन अब
समय की रेखा को
लांघ चुका है 
जहाँ दिल को बच्चा
समझना एक भूल ही 
साबित होगा, समझा जाएगा
और बचपन शब्द तब
गाली लगने लगता है
जब कोई कहे
ये क्या बचपना है? 
दिल और उम्र
एक दूजे के
हमसफर तो है
लेकिन उम्र के साथ
दिल को जोड़ना
कठिन है यहाँ
और
पेश होना पड़ता है
समाज की अदालत में
और उम्र को कटघरे में
बार बार बेइज्जत होना पड़ता है
बचपना छोड़ने को
मजबूर दिल
उम्र का लिहाज करता
दुबक कर बैठ जाता है
और सोचता है
क्या दिल बच्चा है ?
फिर दिल कहता है
चलो अब बड़ा हो जाऊं
चलो अब बड़ा हो जाऊं

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल १६/२/२०१६ 

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

बहाना दिया तो होता....




[ तथाकथित प्रेम दिवस पर एक भाव ऐसा भी ]



आज के दिन उसने, कुछ कहा होता
मोहब्बत को अपनी, याद किया तो होता
अधूरी बातो को, आज कह दिया होता
मेरा न सही, अपना ही जिक्र किया तो होता
पुरानी बातो का, लुत्फ़ लिया होता
शब्द भावो का, वो जाम पिलाया तो होता
बीतो लम्हों को, महसूस किया होता
प्रेम था वो, उसका इजहार किया तो होता
एहसासों को अपने, थोड़ा जगाया होता
गरूर को अपने, कुछ पल भुलाया तो होता 
सीने पर रख पत्थर, झूठ ही कहा होता
प्यार है तुमसे, बस थोड़ा जतलाया तो होता
नही वक्त पहले सा जानता हूँ 'प्रतिबिम्ब'
बस जीने का उसने, कुछ बहाना दिया तो होता.

-         प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल  १४/२/२०१६



Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...