कभी वक्त
चुपचाप रहकर
अघोषित
घोषणा करता हुआ
दबे पाँव
जीवन में दखल देता है
आहट सुनने की हर कोशिश
नाकाम होकर
अचंभित कर देती है
जब वक्त का ही
भयानक रूप
खुली आँखों से देखने पर
हम मजबूर हो जाते है
शून्य से शून्य
गुणा होता जाता है
खुशियां तब
विभाजित होकर
यहाँ वहां बिखर जाती है
हौसला और चाह
घटते हुए
शून्य तक पहुँच जाती है
दुःख जमा हो कर
पीड़ा के साथ
दर्द बेहिसाब देते है
वक्त का ये गणित
जीवन का उत्तर
गलत ही समझाता है
समाधान के तमाम
सिद्धांत, नियम और सूत्र
आत्मसमर्पण करते नज़र आते है
इंसान जीता जागता
एक लाश बनने को मजबूर
- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल