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रविवार, 22 जनवरी 2017

अंधेरे में....



अंधेरे में....

तलाशता रहा
अंधेरे में खुद को
अंधेरे में वक्त को
अंधेरे में किस्मत को
मगर
कोई उत्तर न मिल पाया
अंधेरे से
गुफ्तगू करने की ठान
हिम्मत जुटा पुकारने लगा
आँखे बड़ी कर
खुद को निपुण समझ
अपना ही वजूद ढूँढने लगा

अँधेरे में
अपना अक्श, अपना ‘प्रतिबिम्ब’
पहचानने से इंकार करने लगा
अपनों की पहचान में
कई नाम लिख डाले
लेकिन भूल गया था
अँधेरे में काली स्याही  
को कौन पढ़ पायेगा
कौन हाथ जला
एक रोशनी
मुझ तक पहुंचा पायेगा

लेकिन यकीन है
एक सुबह तो आयेगी
अँधेरे को चीरती हुई
विशिष्ट रोशनी से
चिन्हांकित करते हुए  
तब वक्त भी
तब किस्मत भी
नहीं रोक पायेगी
सुबह को आने से
उन किरणों को
मुझसे मिलने से  

-      प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २२/०१/२०१७

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