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शनिवार, 1 मई 2010

प्यार की राह में


प्रेम तपस्या में

लीन होकर जाना

कुछ हद तक

प्यार की भाषा को

और उसकी परिभाषा को



प्रेम एक

सम्बन्ध है

मेल है

दिल के तारो का

परस्पर स्नेह का

विचारो का

भावनाओ का



एक दूजे का

सहारा है प्यार

समर्पण और आदर का

सामंजय है प्यार



शायद इस दुनिया मे कई

प्रेम पुजारी है

फिर भी

प्रेमबन्धन मे पूर्ण नही



प्यार मोह्ब्बत के इस

मनचले खेल ने

"प्रतिबिम्ब " तुम्हें

बहुत कुछ सिखलाया है

और सिखा रहा है



अरे!!! ये किसकी आवाज है

जो चुपके से मेरे कानो मे

शहद घोल रही है और

अपने करीब बुला रही है



अच्छा मैं चला और कुछ

सीखने की चाह मे - प्यार की राह में।


- प्रतिबिम्ब बड्थ्वाल
(एक पुरानी रचना पुराने ब्लाग से)




मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

नर और नारी, कौन किस पर भारी



"मेन आर रिस्पोन्सिबल"

हुत दिनो से सोच रहा था कि पुरुष को गलत ठहराना कितना जायज़ है और कितना गलत है। आये दिन(आजकल कुछ ज्यादा) महिलाये स्वयं को न जाने हमेशा क्यो सती सावत्री और पति को बस अय्याश ही या गलत करार देने से नही चूकते। अपवाद महिला हो या पुरुष दोनो पर लागू होते है। इसलिये अगुँली केवल पुरुष उठाकर उसे कटघरे मे खडा करना कंहा तक न्यायसंगत है। कुछ हद तक पुरानी धारणाये आज भी हमारे दिलो दिमाग में छायी हुई है लेकिन बदलते युग मे परिवर्तन हो रहे है और आगे भी होंगे। नारी समस्या, नारी सशक्तीकरण, नारी अत्याचार, नारी मुक्ति या नारी कल्याण जैसे मुद्दे किसी भी मीडिया या महिलाओ को उकसाने के लिये काफी है। इन सब को देखने के बाद/पढने के बाद लगता है कि  महिलाओ पर  अत्याचार बढ गये है और शोषण भी। हकीकत में महिलाये आज कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है,उन्हे स्थान मिल रहा है और यह जगह भी पुरुषो की बदलती सोच का नतीजा है। हां कही पर महिलाओ ने जंग भी की है,अपनी काबलियत का लोहा भी मनवाया है और स्थान हासिल किये है।

हिलाये और पुरुष एक समान तो नही हो सकते। जब दो महिलाये एक नही हो सकती या सोच सकती या कर सकती तो फिर पुरुष-महिला समान कैसे हो सकते है। यंहा तक कि प्रक्रति ने भी उन्हे अलग अलग बनाया है। इंसानियत और इंसान को एक नज़र से देखा जाना चाहिये, यह सच है। नारी तो प्रेम और ममता का पर्यायवाची है फिर उसे पुरुषो से इतनी घृणा क्यो। हम क्यो इतने असंवेदनापूर्ण रवैया अपना रहे है। आज भी कई माताये कार्य भी करती है, घर भी बिना किसी शिकायत के चलाती है और यह खूबी भी उन्हे पुरुषो से अलग करती है। लेकिन आज कई महिलाये इसे शोषण या एक हक की बात कह कर अपनी इस खूबी से दूर हो रही है। विचारो या कहने की स्वंत्रता के नाम पर अश्लीलता को बढावा दिया जा रहा है। आज महिलाये लिव -इन या सेक्स को अपनी व्यक्तिगत् अधिकार/सोच  मानते हुये हर सीमा को लांघने के लिये तैयार है। उसके पहनावे में इतना परिवर्तन आ गया है कि कई महिलाओ को जिश्मनुमाईशी मे भी शर्म नही आती।(मेरे इस कथन को कृप्या अपवाद की तरह देखे सम्पुर्ण महिला वर्ग को इसमे ना उत्तारे)।

पैदा होने के साथ ही बिटिया को प्यार (अधिकतर आप मानते होगे, चाहे आपोसिट सेक्स से लगाव्) करने वाला शख्स पिता ही है, इसके विवाह तक उसे दुलार व उसके लिये हर कार्य् को तैयार होने वाला पिता ही है। अगर बिटिया बाहर है रास्ते मे कोई अनहोनी ना हो उस पर पिता ही ज्यादा फिकरमंद होता है,शादी के वक्त भी पिता मां से ज्यादा दुखी होता है चाहे उसकी आंखे बयान ना करे पर मन अधिक रोता है उसका। उसके/ उसकी सुरक्षाके प्रति अधिक चितितं इसी कारण से कई बार कठोर कदम भी लेता है। शादी के पश्चात भी बिटिया खुश रह् सके उसे उसकी ज्यादा चिंता रहती है और उसके लिये कुछ भी करने के लिये तैयार खडा होता है। भाई(पुरुष) भी अपनी बहिन के लिये हर प्रकार के जोखिम उठाने को तैयार रहता है। बहार कोई महिला को छेडे या कंही उपेक्षित  हो रही हो तो भाई का खून कैसे खौलता है उस भाई से पूछिये। पुरुष अपनी मां, बहिन व पत्नी के लिये ज्यादा ऱक्षात्मक (प्रोटेक्टिव्) दृष्टीकोण रखता है। एक प्रश्न आप लोग(खासकर महिला मित्र) उठयेगे ही कि जब अपने परिवार के प्रति है तो दुसरो की मां बहनो और पत्नियो के लिये क्यो नही। कुछ एक उदाहरण मिलेगे आपको जंहा येसा होगा लेकिन सामान्यत: यह धारणा गलत है। यही प्रश्न अगर महिला मित्रो से पुछा जाये कि दुसरे के भाई, पिता या पति के लिये भी आप वही नज़रिया रखते है त्तो उत्तर शाय्द ..... लेकिन आपका मन जानता है। इस पर कई उदाहरण दिये जा सकते है लेकिन फिर मै यह कहना चाहूंगा येसे उदाहरणो या अपवादो से सभी महिलाओ को उस श्रेणी मे नही धकेला जा सकता।

हिला ही घर की बागडोर संभालती है इसलिये उसे गृहणी कहा जाता है। पति भी उसी के इशारो पर चलता/नाचता है। मां भी बेटे की कामना करती है, बेटा-बेटी मे अंतर भी मां ज्यादा दिखलाती है वो भी एक महिला है, भ्रूण की जांच को स्वीकारने और अस्वीकारने के लिये भी मां जिम्मेदार होती है(अगर उसे बलपूर्वक कराया जाये तो शिकायत की जा सकती है), वो भी एक महिला है, बहू पर अत्याचार(आमतौर पर धारणा) करने वाली भी सास के रुप मे एक महिला ही होती है। बेटा भी मां का कहना ज्यादा मानता है, पत्नी के इशारो पर ही मां-बाप से दुशमनी मोल लेता है। कहते है कि सफलता के पीछे भी महिला का हाथ होता है उस्के पीछे एक कारण यह है कि पत्नी अपने पति को दूसरो से अलग देखना चाहती है उसे उकसाती है (जो कि सकारात्मक है) लेकिन अगर वह अस्फल है या पुरुष  परिवार से नाता तोडा बैठा है तो उसके लिये स्त्री को जिम्मेदार क्यो नही( उस पर भी पुरुष के उपर अगुँली कि वह औरत के बहकावे मे आ गया)।कितने पुरुष इसी कारण से तबाह हुये है। सच पूछा जाये तो पुरुष और महिला एक दुसरे के पूरक है लेकिन अपवादो को ढाल बनाना और् पुरुष को ही दोषी करार दिया जाना फैशन बन गया है। आज महिलाये इतने इतने बडे औहदो पर है हर क्षेत्र में है तो क्या उन्हे अपने पिता, भाई या पति का सहयोग नही मिला(कृपया कुछ एक उदाहरणो को इससे ना तौला जाये)। और अगर नही हुआ या हो रहा है तो महिलाये क्यो जिम्मेदार नही इसके लिये। समाज के चरित्र के विकास के लिये परंपराओं व संस्कृति का श्रेष्ठता पूर्वक निर्वाह होना आवश्यक है जिससे देश/समाज और नागरिकों के जीवन का निर्माण होता है। अपनी परंपराओ को गलत सिद्द करके हम बदलाव को सही नही मान सकते। मैने अपने कई जगह( चर्चाओ मे-खास्कर फेसबुक मे मौका मिला) कहा है कि सुधार की गुजाईंश हर जगह है। यदि कही गलत हो रहा है तो क्या इसके लिये हम स्वय तो जिम्मेदार नही क्योकि कंही हम अपनी संस्कृति से दूर हो रहे है सोच का विषय है।  स्त्री जो कि परिवार का एक आधार हुआ करती थी/है परिवार के लिये आज वह समानता के नाम पर विद्रोह को जन्म दे रही है अपने स्वार्थ की खातिर और पुरुष उसमे सहभागी है। सास ससुर को तो बस शोषण के नाम पर वृ्द्द आश्रम जैसे संस्थानो मे धकेल दिया जाता है - पुरुष इसमे क्यो हिस्सा लेता है सभी को मालूम है। आप मे से कई कहेगे हम तो येसा नही करते या किया - जी हाँ मै सब्को दोष नही दे रहा हूँ केवल अपवादो को। यही मेरा कहना है कि अपवादो को ढाल न बनाया जाये पुरुष को दोषी करार देने के लिये। हालत ये है कि पुरुष की तो गलती हो या ना हो बकरा उसे ही बनना पडता है।

पुरुष -महिलाये एक-दूसरे के पूरक है, मित्र या सहकर्मी है, कई मुख्य औहदो पर भी साथ साथ है। फिर भी यह मान लेना कि पुरूष महिलाओं के अधिकारों का हनन करता है या महिलाओं पर अत्याचार करता है, उचित नहीं है। हम नर और नारी की समानता की बात करके, नारी अधिकारों की बात करके नर और नारी को एक दूसरे का प्रतियोगी बना दिया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी को शिक्षा मिले, सब्की जरुरते पुरी हो, विकास का अवसर सब्को मिले, सम्मान मिले और समाज मे सभी वर्गो को इसमे एक सा स्थान मिले।इस पर ही ज्यादा तवज़्ज़ो दी जानी चाहिये। अगर किसी के अनुभव खट्टे है तो उससे पुरे पुरुष समाज को दोश देना मै उचित नही मानता। हमारी महिला वर्ग (अधिकतर) भावनाओ मे जल्द बह जाती है फिर् वह सब भूल जाती है अपने पिता भाई पति के अस्तित्व को और् वह भी उनके साथ खडी हो जाती है पुरुषो को कटघरे मे करने हेतु। पुरुश यंहा भी महिला को बचाने हेतु तैयार खडा मिलता है। आप कोई भी उदाहरण लिजिये जब कही बात होती है या उठती है कही लेख या कविता मे येसा जिक्र हो तो पुरुष( अधिकतर) उनके साथ खडा मिलता है। अब ब्लाग या फेसबुक इत्यादि जगह देख लिजिये स्त्री कुछ भी लिख दे तो भीड खडी हो जाती है, प्रतिक्रिया पर प्रतिक्रिया(कुछ एक जो वाकई काबिले तारीफ लेखन करती है) और पुरुश बेचारे(यदि वो कोई महान हस्ती या जाना माना नही है तो) को तो पढाने(अच्छा या बुरा) के लिये भी ढूढना पडता है।

मुझे किसी भी महिला या महिला मित्रो से कोई शिकायत नही है पर सोच को बदल कर देखिये, आप कोमल नही मजबूत है। हाँ जँहा कुछ अपवाद है उन्हे नज़रो मे लाये समाज़ की और हम सभी स्त्री व पुरुष् मिलकर उसे सुधारे ना कि केवल पुरुष को गलत बता कर। हमे मानव कल्याण(पुरुष या स्त्री, छोटा या बडा, किसी भी जाति या धर्म) हेतु एकबध होना चाहिये इसके लिये कार्य करने चाहिये, प्रतियोगी के रुप में नही। और भी कई भाव आ रहे थे फिल्हाल विराम लगा रहा हूँ। फिर कभी मौका मिलेगा तो जरुर लिखूंगा।

प्रतिबिम्ब बड्थ्वाल
अबु धाबी, यूएई
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