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मंगलवार, 30 मार्च 2010

लिव-इन एक रिश्ता या जरुरत या फिर......???


लिव-इन रिश्ता  रहने की येसी व्यवस्था है जिसमें अविवाहित जोड़े एक दुसरे के साथ लंबे समय तक रहते है बिना शादी के बंधन निभाये हुये।

कई कारणों से जोडे साथ रहना पंसद करते है शादी की बनस्पत। वे अपनी संगतता का परीक्षण करना चाहते हैं इससे पहले कि वे एक कानूनी तरीके से शादी के लिये प्रतिबद्ध हो। वे वित्तीय कारणों से अपने अकेलेपन का स्तर बनाए रखना चाहते है साथ रहकर भी। सहवास के आधारभूत विचार के तहत, कुछ कारणो मे समलैंगिक, समलैंगिक जोड़ों, या पहले से ही किसी अन्य व्यक्ति से शादी हो रखी हो और  कानून उन्हें दूसरी शादी की अनुमति नहीं देता है। आज की युवा पीढ़ी व्यापक रुप से येसे रिश्तों में रहना स्वीकार कर रही हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अपनी एक राय रखी कि एक आदमी और औरत अगर विवाह पुर्व अगर साथ रहे तो उसे अपराध करार नही दिया जा सकता।
"जब दो वयस्क लोगों जब साथ रहते हैं तो इसमे अपराध कंहा है. क्या इसे अपराध कहना चाहिये? साथ रहना कोइ अपराध नही है" मुख्य न्यायाधीश  श्री के जी बालाकृष्णन, श्री दीपक वर्मा और श्री बी एस चौहान सहित तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यह माना। इसमे उन्होने कृष्ण का उदाहरण भी दिया था। मुझे दुख: होता कि लोग इस तरह क्यो उदाहरण देते है जब्कि कृष्ण ने प्रेम या उसका अर्थ को समझाने के लिये उस लीला को धारण किया। लेकिन लोग  उसका गलत मतलब के लिये उल्लेख करते है।

जब शादी की व्यवस्था प्यार में दो व्यक्तियों के लिए भी है, तो जोड़ों के रुप मे रहने के लिये झुकाव क्यो है? इस सवाल के जवाब कई हो सकते है, फिर भी अधिकांश वे जोडे किसी दिन शादी करने के लिए इच्छा रखते है। बस एक दूसरे के साथ कुछ समय बिताना चाहते हैं,एक दूसरे को समझने के लिए। कुछ तर्क देते है कि प्रेम के लिये किसी कागजी या सामाजिक नाटक की जरुरत नही, तो कुछ कहते है शादी केवल धन की बर्बादी है। कुछ लोग इसे "प्रेक्टिकल वे" मानते है।

मेरे विचार:


  • लिव-इन रहने के साथ ही यह सम्झ जाना चाहिये वे जोडे किसी भी समायोजन और सहमति के पक्ष में नहीं हैं क्योकि शादी यही तो सिखाती है जिसके लिये वे तैयार नही है। 
  • सांख्यिकी से भी यही पता चलता है कि प्रेम विवाह ज्यादा टूटते है वनस्पत कि विवाह जो परिवार की सहम्ति से होते है, जिससे आप अंदाज़ा लगा सकते है कि विवाह पूर्व संबंधों को संगत साथी ढूँढने में मदद करता है या नही करता है। 
  • लगता है कि यह सिर्फ एक विद्रोह है नई पीढी द्वारा व परंपरागत नियमों  के खिलाफ। 
  • शादी के खर्चे के मध्य नज़र/लोक दिखावा के तथ्य पर  भी यह जमता नही है क्योकि इसके लिये भी आप स्वछंद है आप अदालत मे विवाह कर सकते है ज्यादा खर्चा किये बिना।
  • लिव-इन रिश्ता एक टेस्ट ड्राइव की तरह है कि पंसद नही तो आप नही खरीदोगे। येसे दृष्टिकोण मे आप को खुशी कैसे हासिल हो सकती है(चाहे आप इसको किसी भी उदाहरण के तहत समर्थन  कर रहे हो)।
  • हां किसी हद तक वित्तिय कारणो के साथ सम्झ सकता हूँ लेकिन वित्तिय दृष्टि से कई और कदम लिये जा सकते है।
  • हाँ अगर आप व्यस्क है और शादी करना चाहते( अगर इज़ाजत नही मिल रही परिवार से या समाज़ से या धर्म के ठेकेदारो से) है तो भी पुलिस या अदालत का सहारा ले सकते है।


प्रशन कई खडे होते है इस बहस से जब हम इसे व्यस्को का फैसला मानते है तो:

1. क्यो फिर वैश्यावृ्ति को खुला नही कर देना चाहिये वह भी तो दो व्यस्को का फैसला है।
2. अगर साथ रहने के बाद बात नही बनती है तो फिर क्या नये साथी की तलाश होगी??? कितनी बार ???
3. बार डांस जैसे शगूफे को भी आप खुला क्यो नही छोड देते वे भी तो व्यस्क लोगो का फैसला है।
4. फिर तलाक या घर से दूर(पति या पति से) होने को खुला रास्ता देना चाहिये वह भी दो व्यस्को का फैसला है।
5. अगर गलती से या इच्छा से संतान को जन्म देते है और कल अलग होने का फैसला लिया जाता है तो उस संतान का क्या होगा???
6. हर महिला या पुरुष को आप स्वेछा से कंही भी खुले आम सहवास की इज़ाज़त देगे? ये भी तो व्यसको का फैसला है।
7. अगर लिव -इन इतना ही महत्वपूर्ण( आज तो येसा ही लग रहा है) है या इसमे खामी नही है तो फिर् इसे जरुरी करार दिया जाना चाहिये अवधि के तहत शादी से पहले।

येसे कई और प्रश्न मुँह बाये खडे है इस कारण से

किसी भी मर्यादा (इसकी सीमा क्या हो - आज के प्रक्षेप मे यह प्रश्न चिन्ह बन गया है) से बाहर निकल कर काम करना अपराध है इसे परिवार और समाज ( आज के पाश्चात्य समाज की बात नही कर रहा हूं) की मर्यादाओ के तहत ही देखा जाना चाहिये ना कि किसी व्यक्ति या उसकी सोच के साथ परिवर्तन की दृष्टि से। परिवर्तन जरुरी है लेकिन किस कीमत पर खासकर मान्यताओ(सकारात्मक)के साथ। हां जो त्रुटिया है या जो वाकई गलतिया है या करते आ रहे है,उन्हे सुधारने के लिये सहज़ रुप से बदलाव लाना आव्यशक है।

मीडिया ने तो इस खबर को अब व्यापक रुप देना शुरु कर दिया है किसी टी वी चैनल  के एक कार्यक्रम मे उन लोगो को बुलाया गया और उनकी बातो ज्यादा तर्जी दी गई जो येसे रिश्तो मे है या यकीन रखते है बुधीजीवी वर्ग बस हां मे हां मिलाता रहा। येसे जोडो को नही बुलाया गया जो शादी के बंधन मे सालो साल से बंधे है। हम पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने मे गर्व महसूस करते है और उसके पक्ष मे ना जाने किस किस तरह के उदाहरण लोगो को दिखाते है। एक माता जी जो काउसलिग करते है इसी कार्यक्रम मे कहती है कि मुझे पता है कि मेरी लडकी शाय् बाहर सेक्स करती है येसा आभास उन्हे अपनी लडकी कि फोन पर हुई वार्तालाप से हुआ इस पर सभी लोगो ने ताली बज़ाई( किसलिये पता नही - उनके इस खुले पन के लिये या उनकी पुत्री के येसे व्यवहार से)। आखिर हम क्या सिखाना चाहते है?

अब समय आ गया है कि हमे अपनी संस्क्रति और मान्यताओ को व्यापक रुप मे सामने लाना होगा। शादी जैसे पवित्र बंधन को जिसे हम स्वय मे एक संस्था मानते है- उसकी सफलताओ को, भावनाओ को एवम उसके लाभो के साथ प्रचार करना होगा वरना उस दिन का ध्यान किजिये जब सब  इसके ........
उन सभी का प्रचार करना होगा जो वास्तव मे सकारात्मक है और जंहा खामिया है उनमे एक सुचारु रुप से बदलाव लाने का प्रयास।  शिक्षाओ मे सामाजिक दृष्टिकोण भी सामने लाना होगा और इसके नकारात्मक पक्ष को भी उज़ागर करना होगा।

आप क्या सोचते है ?????

-प्रतिबिम्ब बड्थ्वाल

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