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गुरुवार, 21 नवंबर 2013

ये दुनियां ....




अँधेरे बहुत है 
उजाले कम है 
यहाँ 
थोड़ी खुशियाँ है
जुड़े कितने गम है
कितने बेबस हम है

वक्त की कसौटी
मांग रही हौसला
लेकिन
अंग अंग बिखरा सा
तन मन बोझिल सा
रोम रोम सिसकता सा

कांटो की सेज सजी
पल पल चुभता है
अब
फूल एक कोने में
खड़ा मुस्कराता है
ज़ख्म हरा करता है

मेरे अस्तित्व को
रोज रोज ठेस लगती है
दुनिया
मंद मंद मुस्काती है
तमाशा देखती जाती है
बहती गंगा में हाथ धो जाती है

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

बुधवार, 20 नवंबर 2013

जलता कौन नही है




कोई गम की आग में
कोई कर्म की कसौटी पर
कोई इर्ष्या की तपन में
कोई शीर्ष की देहलीज पर
कोई प्रेम अगन में
कोई अहंकार की गरमी पर
कोई दुशमनी की आँच में
कोई भ्रम के धुएं पर
कोई क्रोध की ज्वाला में
कोई अपनों की बेवफाई पर
कोई वक्त की आँच से
कोई दुनिया से रुखसत होने पर

लौ इस दिए की
शायद कुछ कह रही है
जलना है तो ऐसे 'प्रतिबिंब'
खुद जल रोशन दुनिया करो


-प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

रविवार, 17 नवंबर 2013

आईना - ए - जिंदगी





अमीर गरीब की बढ़ती खाई
सियासत की ये चाल भाई
स्वार्थ ने है पैठ बढाई
इंसानियत की देते सब दुहाई

खुशी कही पलके बिछाए
गम कही है डेरा जमाए
कर्म धर्म का जाल फैलाए
जिंदगी आइना दिखाती जाए

दर्द झेल रहा कोई
खेल समझ रहा कोई
किस्मत कहे 'प्रतिबिंब' कोई
बुरा वक्त समझ रहा कोई
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