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बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

मेरा वजूद




"मेरा वजूद"


मेरा वजूद
छोटी छोटी बातों से
सांतवे आसमान पर
चढ़ इतराने लगता है
'मैं' का अस्तित्व
इंद्रधुनष बन
अंतर्मन में विराट रूप लिए
अहंकार से वशीभूत होकर
प्रफुल्लित हो जाता है

स्वयं के होने की
मृगतृष्णा लिए आँखे
दूर तक खुद के साम्राज्य की
आकांशा लिए देखती है
और
मस्तिष्क
स्वप्न की बग्घी में बैठ
सोच के घोड़ो
को दौड़ाने लगता है
उसकी तेज रफ़्तार
हवा के वेग को भी
चीरकर उड़ने लगती है

फिर अपने इर्द गिर्द
कुछ न दिखाई  पड़ता है
न कुछ  सुनाई  पड़ता है
चेतना मूर्छित हो
इंसानियत को क़त्ल कर देती है
लेकिन
'मैं' और उसका वजूद
प्रकृति के विरुद्ध
कब तक चल सकता है
यथार्थ के धरातल पर
पाँव रखते ही
ओंधे मुंह गिर जाता है
सिसकता हुआ
वेदना के साथ
अपने 'प्रतिबिम्ब' को
पहचानने का
असफल प्रयास करता 'मेरा वजूद"


-प्रतिबिम्ब  बड़थ्वाल


सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

यूं तो ...





यूं तो .....

किया जब इकरार
वो तेरे प्यार का असर था
पा लिया तुझे
ये मेरे प्यार का असर है

यूं तो सारे जहाँ में
मिली है एक तू ही
हूँ तेरी जागीर
अब समेट ले तू ही

मेरी आँखों में
यूं हो तुम बसती
मेरी नज़र को भी
जिसकी खबर नही होती

यूं तो
दिल मेरा सभी से मिलता है
तुझसे मिलने पर
सारा जहाँ न जाने क्यों जलता है 

चेहरा तेरा है
लेकिन ये निगाहें मेरी है
दिल तेरा है
लेकिन इसमें बसी जान मेरी है

मेरी धडकनों में
बैखौफ रिहाइश है तुम्हारी
“प्रतिबिम्ब” समझ रहा
हर इशारे की कहानी तुम्हारी


- प्रतिबिम्ब  बड़थ्वाल 
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