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बुधवार, 21 दिसंबर 2011



एक सच येसा भी ......

वक्त की चादर ओढ़, बूढ़ा हो चला तन
कर्म धर्म की लाठी ले, चलता रहा तन
आशाओं का दीप जला, जलता रहा मन
अरमानों का घोट गला, पिस्ता रहा मन

सपने बनते टूटते रहे, चाह पलती रही
अपने पराए हुये, आँख बस तकती रही
दिलो दिमाग में, सोच तांडव करती रही          
कभी सुध कभी बेसुध, सांस चलती रही
     
एक जीत मे, भीड़ हर पल बढ़ती रही
एक हार मे, भीड़ हर पल घटती रही
खुशियाँ किस्मत की, किताब पढ़ती रही
हर पन्ने पर ,दुख के निशान लगाती रही

कितना सुलझाया, लेकिन डोर उलझती रही
कितना समझाया ,लेकिन सोच पनपती रही
कितना बनाया,लेकिन राह बिगड़ती रही
कितना जगाया ,लेकिन किस्मत सोती रही

अब भी कहाँ सुधरा है , चिंतित मेरा मन
अब भी करता रहता है, चिंतन मेरा मन
अब भी भूत भविष्य मे है, उलझा मेरा मन
अब भी उलझनों से कहाँ है, सुलझा मेरा मन
                                                                         


                                                                          प्रतिबिंब  बड़थ्वाल 

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

जीवन में.....




जीवन में.....

सपने असज्जित, अयाचित
कहना अनरीत
सलाह अनुचित
परिणाम अपरीक्षित, अस्तमित
जीवन अभ्यसित
संस्कार अनूदित
अपयश अर्जित, अनुगृहीत
प्रश्न अनुतापित
मन अध्यासित,
चाह अस्वीकृत, अमनोनीत
सोच अनारक्षित
भविष्य असुरक्षित
कर्म अपाश्रित, अपमानित
सत्य अनुपस्थित
झूठ अप्रमाणित
दुख अनिवारित, अन्वित
सुख अनुस्वादित
मंजिल असंभावित,
राह अपुष्पित, अवरोधित
दुश्मन अशिक्षित
मंजिल अभीप्सित
मित्र अनगिनत, अलक्षित
     

       फिर भी .....
       भूला अतीत
विचार अभिनंदित
स्नेह अंकित
मैं अनुशासित
सपने अगनित
चला अचिंतित
हौसला अतुलित
........................... और मैं समर्पित

मेरी इस रचना का अंत अनंत है...........

-      प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

बुधवार, 23 नवंबर 2011

……….. इसलिए रुक गया हूँ !!!




अब दिलो दिमाग मे नस्तर चुभने से लगे है
दर्द स्याही न बन जाये इसलिए रुक गया हूँ
आज कुछ लिखते लिखते मैं फिर रुक गया हूँ
कहीं कुछ लिख ही न दूँ इसलिए रुक गया हूँ

उड़ा कर धूल, खुद ही हम मैले हो रहे है
झूठ से नाता, सच से हम बेखबर हो रहे हैं
रात से कर बाते, सुबह से अंजान बन रहे है
राज कहीं खुल न जाये इसलिए रुक गया हूँ

विश्वास अब, दुशमन सा घात लगाए बैठा है
स्नेह दिखावे का, अब तीर सा दिल मे चुभता है
रिश्तो मे नाते अब तिनके से बिखरने लगे है
कहीं रिश्ता टूट न जाए इसलिए रुक सा गया हूँ

शब्द तीखे, आंखो से आँसू बन निकल रहे है
बीते लम्हे, अब रोज याद बनकर गुजर रहे है
उठा हाथ, अब खुदा से फरियाद करने चला हूँ
कहीं दुआ कबूल न हो जाये इसलिए रुक गया हूँ 

संस्कृति का उड़ा मज़ाक, परिवर्तन समझ रहे है
संस्कारो को भूलकर अपनी उन्नति समझ रहे है
स्नेह छोड़ अपनों से, गैरो को अपना समझ रहे है
कहीं कोई भूल कर न बैठू इसलिए रुक गया हूँ

कतर कर पंख अपने, कैसे हम उड़ान भरने चले है
छोड़ कर हौसला, कैसे हम जीत की सोचने लगे है
बदल कर खुद को, कैसे हम आगे चलने लगे है
कहीं कदम डगमगा न जाये इसलिए रुक गया हूँ

जिक्र अपना करूँ, खफ़ा दुनिया वाले हो जाते हैं
बिछा जाल शब्दों का, लोग बेफिक्र हो जाते हैं 
कुछ लिख कर 'प्रतिबिम्ब' मैंने भी सँजो लिया है
कहीं बरसात न हो जायें इसलिये रुक गया हूँ !!!

                   - प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

तारीख़




तारीख़ .........
तारीख़े तो यहाँ रोज़ बदल जाती है   
कुछ हम भूले कुछ याद बन जाती है 
कुछ तारीखे गवाह है इतिहास की
कुछ याद दिलाये हुये परिहास की

तारीख़ पर तारीख़ मिलती है कहीं
तारीख़ पर जीत मिलती है कहीं
जन्मदिन व सालगिरह का है जश्न कहीं
बिछड़ने और मौत का छिपा है गम कहीं

कुछ तारीखों का रखते है शौक यहाँ
कुछ को इन तारीखों से है खौफ यहाँ
तारीख़ का महत्व जतलाये लोग यहाँ
हर पल की कीमत भूले हैं लोग यहाँ

कुछ देते चेतावनी अपशकुन होने का
कुछ देते भरोसा इसमे शकुन होने का
वो खेले खेल तारीखों के आने जाने का
रचते खेल बस जेब मे पैसा आने का

तारीखों का व्यवसाय अब यूं होने लगा है
कैलेंडर की शक्ल भी अब बदलने लगी है
सारे रिश्ते अब ' डे ' बन कर उभरने लगे है 
रिश्ते दिल पर नहीं कागज पर बसने लगे है

तारीख़ तो आगे बढ़ती जाती है
हर दिन कुछ संदेश दे जाती है
बीता वक्त कभी हाथ आता नही 
आज और अभी की सोच है सही

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

प्रेरित करना होगा



मन - मस्तिष्क के
चीथड़े उड़ते देखा है क्या ?
नही ...... ?  
महसूस तो किया होगा .....

जब दिल टूटा होगा
जब हार झेली होगी
जब अपने गैर हुये होंगे
जब दोस्त दुश्मन बने होंगे

समाज को जब नपुंसक पाया होगा
नेताओं को जब खिलवाड़ करते देखा होगा
गरीब का पेट जब सिमटते देखा होगा
देशभक्ति को मज़ाक बनते देखा होगा

प्रकृति का क्रूर मज़ाक देखा होगा
अपनों को अपनों पर हँसते देखा होगा
झूठ को सच पर जीतते देखा होगा
नारी का अपमान होते देखा होगा

जब खुली आँख से भी ठोकर खाई होगी
जब दिन मे भी अंधेरा  होते देखा होगा
इंसानियत को जब बिकते देखा होगा
धर्म  को जब राजनीति की आड़ लेता होगा  

संस्कारो का जब हवन होते देखा होगा
देश प्रेम को जब आतंक कहते देखा होगा
आतंक को जब संरक्षण पाते देखा होगा
संस्कृति को जब अपनी लुटते देखा होगा

अगर नहीं तो सोच को बदलना होगा
मन - मस्तिष्क को फिर जागृत करना होगा
सोच को फिर कर्म अपना बनाना होगा
अंदर के इंसान को फिर से प्रेरित करना होगा
-       प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

शुभ दीपावली

शुभ दीपावली
आप सभी मित्रों, आपके परिवार व सगे संबंधियों को 
दीपावली की ढ़ेर सारी शुभकामनायें





प्रतिबिम्ब एवं परिवार की ओर से 

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

नई गरीबी रेखा .......



नई गरीबी रेखा .......


गरीब अमीर का खेल है आकर देखे हम करीब
सत्ताधारी कहते हैं,अब न बचा कोई यहाँ गरीब
बड़ी योजनायेँ चली तब जाकर गरीब हुआ अमीर
गरीबी खतम हो जाएगी,जब बचेगा न कोई गरीब

देखा रहा खुली आँखो से मेरे भारत का विकास
पर ग़रीबों का तो हर मोड़ पर उड़ा रहे है उपहास
गावों मे तो बने अमीर जिसे मिले रुपये छब्बीस
शहर का अमीर भूखा नही जो मिले रुपये बत्तीस

मेरा भारत महान देखो मित्रो कितना हुआ है विकास
अमीरी गरीबी की रेखा देखो लिख रही नया इतिहास
मेरे शहर मे रोटी,कपड़ा और मकान की औसत रुपये बत्तीस
मेरे गावों में जीने की भी हो गई, अब औसत रुपये छब्बीस

और अंत मे  ....

सुंदर है वो जिसके मुँह है दाँत बत्तीस
अमीर है जिसकी जेब मे रुपये बत्तीस
गरीब की किसी को न दिखती आँत 'प्रतिबिम्ब'
गरीब के पास तो दाँत भी न बचे अब बत्तीस

-                            - प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

मैं आंतक हूँ




मैं आंतक हूँ

मेरा नाम सुना होगा
मैं 'आंतक' कहलाता हूँ
देखा होगा तुमने लेकिन
मेरा कोई चेहरा नही है
मैं भय लोगो में फैलाता हूँ
मुझे खून से बहुत प्यार है
मैं तो लाशें तैयार करता हूँ
मैं फिर लाशों पर चलता हूँ
देशद्रोहियों का असली हथियार हूँ
मानवता से मेरा कोई सरोकार नही
रोते बिलखते चेहरे आकर्षित करते है

बेखौफ हूँ क्योंकि
आपके बीच ही निरंतर पल रहा हूँ
आप से ही मुझे सहारा मिलता है
आपकी खामोशी मेरा मनोबल बढ़ाती है
आपके डर से ही मेरा जोश बढ़ता है
आप का गुस्सा केवल दो दिन का है
आप की सहनभूति केवल दो दिन की है
आपके आँसू भी तो केवल दो दिन के है
आप के सारे खुफिया व पुलिस तंत्र ढीले है
जो हादसो पर जागते हैं बाकी वक्त सोते हो
आपकी न्याय प्रक्रिया भी मुझे हौसला देती है
मानवाधिकार भी शायद मेरे लिए ही बना है
राजनीति पर तो मैंने बस पकड़ मजबूत की है
आपकी संवेदना भी तो अपनों तक सीमित है  

चंद रोज के बाद
मैं फिर खड़ा होता हूँ आपके ही सामने
मैं फिर चुनौती देता हूँ आपके ही सामने
मैं फिर आपकी बहस का हिस्सा बन जाता हूँ
मैं फिर आपको उसी उधेड़ - बुन मे पाता हूँ

मुझसे छुटकारा चाहते हो तो
अपनी सोच को आज से ही बदल डालो
कानून से मुझ पर तुम सख्ती डलवाओ
पुलिस व खुफिया तंत्र को सशक्त बनाओ
हादसो पर राजनीति को तुम दूर हटाओ
जागरूक नागरिक की भूमिका तुम निभाओ
सवेंदनशीलता छोड़ अब निर्भय बन जाओ
धर्म को इससे न जोड़ो और एक हो जाओ
चौकस रह अपनी सुरक्षा का जिम्मा उठाओ 

वरना मैं तो आतंक हूँ फिर खड़ा हो जाऊंगा

-  प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

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