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गुरुवार, 4 जनवरी 2018

नया सृजन



जीवन का शाश्वत मूल्य लिए
अनेको भावों का बिम्ब समेटे
रस गंधो से झंकृत हो कर
भावप्रवणता सहित अभिव्यक्ति 
बिखेर जाती सुगंध और मादकता
सृजनता बनती फिर मेरा पैमाना
होता फिर एक नया सृजन

राग विराग की लेकर सार्थकता
उकेर देता मौन हृदय का वार्तालाप
हर संवेदना का लेकर उद्बोधन
भावाभिव्यक्ति का लेकर उल्लास
न होता आडंबर न बढ़ता लालच
सृजनता बनती फिर मेरा पैमाना
होता फिर एक नया सृजन

यथार्थ के परिवेश में शब्द भाव
सामाजिक विषमता पर करते चोट
हर विवशता का कर सटीक चित्रण
लिख जीवन दर्शन से साक्षात्कार
जीवटता और जड़ता को कर स्वीकार
सृजनता बनती फिर मेरा पैमाना
होता फिर एक नया सृजन

रूठते इठलाते मेरे अक्षर - अक्षर
कभी बूँद, कभी बन जाते समंदर
आँख मिचौली संग हँसते रुलाते शब्द
हर हृदय की लिखकर यूं पटकथा 
जैसे शब्दों का 'प्रतिबिम्ब' से हो अनुबंधन
सृजनता बनती फिर मेरा पैमाना
होता फिर एक नया सृजन

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ०४/०१/२०१८

                                            

रविवार, 31 दिसंबर 2017

~ अंतिम बात ~







अट्टहास करती
मुंह चिढ़ाती जिन्दगी
प्रचंडता के पैमाने तोड़ती
अंसंख्य आवाजे 
तथाकथित अपनों के
ढेर सारे निर्देश

वक्त के असंख्य घाव
वेदना देते शब्द बाण
सामाजिक धुएँ की घुटन
मूर्च्छित सा घायल अंतर्मन
स्वाभिमान की खातिर
बस लाश न बन सका

बरसों की निष्ठां को
ठेंगा दिखाती दूरियाँ
मुस्कराहट की आड़ मे
कटुता का तीखा प्रहार
रिश्तों की अग्नि परीक्षा मे
असफल होते कई नाम

क्या खोया और क्या पाया
आज नहीं गिनना चाहता फिर भी
सब पाया ही है आज तक
सुख - दुःख, दोस्त - दुश्मन
खोया वक्त व् विश्वास आज तक
यही मेरी इस साल की 'अंतिम बात'



-प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ३१/११/२०१७

~ सुना है ~







सुना है
कुछ लोगों का भी
कहना है कि
मैं भाव खाने लगा हूँ
लगता भी होगा 
क्योंकि अब मैं
उनके भावो के बहकावे में नही हूँ
उनके शब्दों का गुलाम नही हूँ
उनकी आवाज को सुनता नही हूँ
हाँ सच है
उनके ठहराए नियमों से विलग
अपने नियमो का
निष्ठापूर्वक पालन करता हूँ 
अपनी दुनियाँ मे
चुने हुए अपनों के साथ
यहाँ तक कि आभासी दुनिया में
स्वछंद विचरण करता हूँ
दूसरो की खुश की चाह न कर
खुद मे ख़ुशी की
तलाश मे निरंतर प्रयासरत हूँ 

हाँ, प्रेम, मान - सम्मान सब था
जब तक रिश्ते मे इज्जत थी
जब तक स्नेह की डोर बंधी थी
बनते बिगड़ते अहसासों की कद्र थी 
रिश्ते मे पवित्रता का समागम था  
एक ख़्वाब के टूटने का भय था
एक व्यक्तित्व को खोने का डर था
अपने का साथ छूटने की कशमकश
रिश्ते को मजबूती प्रदान करती थी

दायरा न रखा, न बनाया था
लेकिन
स्वचेतन से मर्यादित होकर
हर व्यक्तित्व को
उसके स्थान पर
आदर या स्नेह से सदा संवारा
लेकिन अब
अपना अपमान मुझे नही गँवारा  


- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ३०.११.२०१७
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