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शुक्रवार, 18 मार्च 2016

कैसे खेलू होली ...





रंग होली के
लोग गुनगनाने लगे है
फागुन वसंत के
रंग में रंग
गीत संगीत के घुलने लगे है
बस मैं
इन रंगों से अलग
कुछ सोचने लगा हूँ
सोच रहा हूँ
अतीत के पन्नो में
छिपे उस रंग को.....

चटक रंग एहसास के
भावो संग प्रेम रंग
सजता और बरसता था
हर दिन
होली सी लगती थी
हर रंग छेड़ते और
अपना रंग छोड़ते थे
कभी चेहरा गुलाल
कभी लाल होता था
इन्द्रधनुष
क्षितिज की तरह
तन मन पर
उभर आता था

चंदा की चांदनी
भानु की वो किरणे
हर रंग को निखारती 
रात को सपनो में
उन रंगों का मिलन
और
उत्साह प्रतिबिंबित होता था
हर रंग की गवाही
सुकून बन उभरती थी


आज
कैसे खेलू होली
सब रंग जिन्दगी के
फीके हो गए
एहसास शिकायत
करने लगे है और
चौराहे पर
खड़े होकर
भीख मांगने लगे है
रंग दूर से ही
अब अच्छे लगते है
उनको छूने की चाह
झुलसा देती है
बैचैन एहसासों के दर्द को
दर्द के श्रोतों को
बढ़ा देती है
आस के महल को
धवस्त करती है 
रंग के कण कण
खंजर से चुभते है
नीरस भावों की
नदी रोज बहती है
अब उसमे कोई
न रंग मिलता है
न बहता है
रंग विहीन भावो का
कैसे मैं आलिंगन करू
बताओ मैं कैसे खेलू होली .....


[प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल १८/३/२०१६]

बुधवार, 16 मार्च 2016

मिलकर जाना ...




मिलकर जाना तुमसे
मोहब्बत और उसके एहसास को
पल पल जिया है तब से
तुम्हे और इन आती जाती साँसों को

परी नही सच नदी सी हो
बहता जिसमे है प्रेम पावन मेरे लिए
है मुझमे समाई हर लहर
हाँ सागर प्रेम का हो तुम मेरे लिए

प्रेमगीत मन में उभरते है
लेकिन कैसे लिखूं वो प्रेम ध्वनि
पाकर तुमको जो पाया है
कैसे कह दूं किस्मत का नही धनी

शब्द बस उतर आते है
होती रोज मुझे एक नई अनुभूति
मोहब्बत शब्दों की नही है
रूह में बसती, चेहरे पर है सजती

सच कहूं एक बात तुम्हे
तेरे इश्क में पागल होना है जरुरी
दिल दिमाग अब कहा काबू
तेरा मेरी जिन्दगी में होना है जरुरी

एहसास, शब्द समझा देते है
मन हमारा खुद व्याख्या कर लेता है 
अनुमति, कभी शब्द देते है
कभी खामोशी को मन समझ लेता है   

हर बात हमारी अब अपनी है
सुन्दरता बस मन की अब दिखती है
प्रेम समर्पण हमारी अमानत है 
मोहब्बत जिसको पाकीजा बना देती है

कहने को प्यार एक बार होता
लेकिन मुझे पल पल प्यार तुमसे है होता
प्रेम की तुम मेरी पराकाष्ठा हो
तारों के प्रांगण में प्रेम  जहाँ त्वरित होता 

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल १६/६/२०१६  

सोमवार, 14 मार्च 2016

मैं और मेरी कविता





बस कुछ शब्द
और कुछ भाव 
एक कविता को जन्म देते है
कविता के पैदा होते ही
जीत का एहसास होता है
कभी उस जन्मी कविता को
घुप अँधेरे में रहने को
विवश होना पड़ता है
कभी उसे उसकी
प्रेरणा के सपुर्द कर
खुद को मुक्त कर देता हूँ
कभी उसे स्वतंत्र छोड़ देता हूँ
कभी उसे कोई
चाहने वाला अपना लेता है  
कभी मेरी कविता
विजय पताका बन हर दरवाजे पर
दस्तक देती आगे बढ़ती जाती है

कविता के चारों ओर
देख रहा हूँ कुछ जश्न सा
जश्न में शामिल कुछ अपने
जिंदाबाद जिंदाबाद
के नारे लगाते हुए पीछे चल रहे है
कुछ उद्देश्य से अभिज्ञन्य
बस एक भीड़ और
उसकी भेड़चाल में शामिल
कुछ चेहरे उछल उछल कर
शामिल होने की गवाही देते

देख रहा हूँ
जलसा थोड़ा आगे बढ़ा
और भीड़ में से
कुछ इधर उधर बिखर गए है
शायद कही से कोई आवाज़
उन्हें रिझाने लगी है
मैं और मेरी कविता
कुछ चेहरों को तलाशती रह जाती  
मुड़ कर उन्हें देखना चाहते है
पर वे ओझल है अब

हाँ उस भीड़ से
कुछ लोग अब आगे खड़े है
दोनों बाहे फैलाए
मेरा और कविता का
स्वागत करते है  
कुछ मेरे हौसले की
पीठ को थपथपाते है
शायद उनमे मेरी सोच को
समझने का हुनर है
या शब्दों और भावों के पारखी है  
या फिर वे जौहरी है
जो कीमत भी जानते है
और तराशते भी है
मैं और मेरी ये कविता
उन्हें प्रणाम करती है
उन पर गर्व करती है  
और ये कविता
उन्हें ही समर्पित है

-       प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल १४/३/२०१६

रविवार, 13 मार्च 2016

विस्थापन ...



दुखों के विस्तार को
कसौटी पर कसती
अनेक आँखे और अनगणित मन
एक भाव स्थापित
और सज़ा का एलान
जुर्म और एहसास के बीच
भावनाओ का अघोषित युद्ध
जीत हार तय नही
बस
अस्त्र शस्त्र हाथो में
चमकती उनकी धार
करने को तैयार वार

जुर्म का बोध कराती
अपनी ही बिरादरी
कड़क स्वर से
अंगुली उठाते
वो तमाम घुसपैठिये
जो न जाने कब से
मुझमें स्थापित हो चुके है
मेरा मन
विस्थापन को मजबूर
आत्मविश्वास कभी
शून्यता को पकड़
विलीन हो जाना चाहता है
कभी एक डोर हौसले की
मुझे ऊंचाई पर छोड़ देती है
वहां भी अकेले डर लगता है
ऊंचाई से गिरने का भय

दर्द और विस्थापन
समाज का बोझ ढोने में नाकाम
पीड़ा के चीखते लफ्ज
किसी के
कानो से होकर नही गुजरते
खोखले समाज में गूंजती आवाज
लौट आती है
फिर खुद के कानो से टकराकर
नेपथ्य में विलीन हो जाती है

मन और शरीर
निर्वासन का दंश लिए
तकते रहते है
अपने ही पाले हुए
उन पालतू जानवरों को
जो अब नोचना सीख गए है
और हम उनके बीच रहकर
खुद को
इंसान समझने की भूल कर रहे है  

-    प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल  १३/३/२०१६

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