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मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

रिश्तों का आधार




 

रिश्तों का अनकहा सच
आँखों का पानी बतलाता है  
सच रिश्तों का फिर भी
अपनी कलम से लिखता हूँ 
बनते रिश्तों में प्रेम अनायास ही 
भीनी-भीनी खुश्बू बिखेरने लगता है 
रिश्ते बनते ही प्रेम छलकने लगता है 
अपनों की शान में शब्दकोष के 
समानार्थी शब्द हर कोने-कोने से 
अविरल निकलने लगते हैं 
परिभाषाओं के पहाड़ 
अलंकारो और विशेषण से 
अलंकृत हो कर सजते हैं 
विश्वास व् सरंक्षण करते शृंगार
सच कहूँ इस प्रकाट्य अवधि में
नि:स्वार्थ सा लगता है हर भाव
समर्पण होता तन, मन, धन
और संवेदनाओं से पुरुस्कृत लोग 
परमार्थ सा पुण्य कमा लेते हैं 


हम फर्ज रिश्तों का निभाते हैं
खुद पर कर्ज समझ तोलते हैं 
लेकिन इसी रिश्ते में ‘कुछ’
स्वार्थ के शब्दों से, बोली लगाते हैं 
कुछ पीठ पर वार कर जाते हैं
देखता हूँ मोम से पिघलते रिश्ते 
रिश्तों की तपिश में जलता मजबूर धागा  
शायद स्वार्थ हित से ओत प्रोत नहीं जानते 
शून्य हो जाता है सब किया हुआ और
पुण्य जितना भी अब तक बटोरा हुआ 
जिस दिन सब जानते हुए भी 
परार्थी से स्वार्थी बन जाते है लोग  


नए रिश्तों की तलाश में भी
पुराने रिश्ते तोड़ जाते हैं लोग  
कुछ बोझ का करा अहसास 
कुछ बना कर लम्बी दूरी  
रिश्ते को तिलांजलि देते लोग
कुछ राग अपनत्व का गाते-गाते 
द्वेष भाव पर उतरते अपने ही लोग 
रिश्तों की गरिमा की आंच अब
हर मौसम में ठंडी होने लगी है 
इन सबसे होता यही चरितार्थ है 
कि रिश्तों का आधार ही स्वार्थ है    
है कड़वा ‘प्रतिबिम्ब’, पर सत्य है
रिश्तों में उभरता यही पूर्ण सत्य है
 
-प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल, १८ अक्टूबर, २०२२ 

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