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गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

खामोशी का शोर...







शब्दों का ताना बाना
कभी सवाल करता
वजूद बस मिट्टी सा
कभी यकीन दिलाता है


बनते बिगड़ते शब्द
उसकी बात करते है
कभी आवाज़ ओंधे मुंह
लहुलुहान गिरती है


खामोशी का शोर
शब्दों की भीड़ में
अकेला बात करता रहा
रिश्ते की आड़ में


रात में शब्द तन्हा है
कभी कविता बनते
कभी 'प्रतिबिम्ब' ये

क़त्ल भी कर देते है

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