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गुरुवार, 14 जनवरी 2016

साहित्य की चुनौतियां - सन्निधि संगोष्ठी

[२१ नवम्वर २०१५ की सन्निधि संगोष्ठी  में साहित्य की चुनौतियाँ विषय पर मेरे विचार -किरण आर्य ने मेरे विचारो को संगोष्ठी में पढ़ा - किरण का हार्दिक धन्यवाद करते हुए आज इसे पोस्ट कर रहा हूँ ]

सभी अतिथिगण एवं चर्चा में शामिल सभी साथियों को मेरा सप्रेम नमस्कार. वैसे तो किरण जी के माध्यम से सनिन्धी के कार्यो / संगोष्ठी से परिचित हूँ और साहित्य सेवा के लिए इससे जुड़े लोगो का अभिनन्दन करता हूँ. विदेश में रहने के कारण व्यक्तिगत रूप से इसका हिस्सा न बन सका. आज दूर बैठकर भी आप मित्रो के समक्ष अपनी बात कहने का, चर्चा में शामिल होने का अवसर मिला है, खुशी का अनुभव कर रहा हूँ.


साहित्य की चुनौतियाँ...
सर्वसहमति और असहमति के बीच जैसा कि संगोष्ठी का विषय ही चुनौती है तो उसे स्वीकार भी करना होगा, स्वीकार रहे है तो उन चुनौतियों को रेखांकित भी करना होगा. आज जीवन में सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा मनोविज्ञानिक रूप से बदलाव हमारे सामने है. रचनाकार भी इस बदलाव से अछूता कहाँ है. और यही से हमारी चुनौती शुरू होती है. पाठक या जनता की चित्वृति में हो रहे बदलाव को समझना जरुरी होगा. साहित्य और साहित्य्लोचना को साथ साथ चलाना होगा. अकेले तो इसे पूरा नही कर सकते इसलिए सभी साहित्यकारों को साथ या ऐसी सोच रखने वालो को साथ देना ही होगा. यहाँ उपस्थित साहित्यकार, मित्र, अतिथि अपने अपने अनुभवों से समकालीन चुनौतियों को आपके समक्ष रखेंगे ही इसलिए मैं केवल कुछ बातो को आपके सामने रखना चाहता हूँ.
*राष्ट्रवाद की चुनौतियाँ  
आजकल वैसे भी साहित्य जगत चुनाव से पहले चर्चा में था. सम्मान [ यदि वो क़ाबलियत पर था ] लौटाकर साहित्यकार चर्चा में बने रहे. मैं समझता हूँ वहां उन्हें कलम को ही सहारा बनाना चाहिए था वरना ये तो सीधे सीधे राजनैतिक अजेंडा ही नज़र आ रहा है. साहित्यकार भी इसी दुनिया, इसी समाज से रिश्ता रखते है और राजनीती ने ने भी उन पर अपनी पकड़ बनाई है. लेकिन उस सोच को लेखन के द्वारा हासिल करते तो साहित्य जगत को शर्मिंदा न होना पड़ता. राष्ट्रवाद से समझौता नहीं होना चाहिए. आप कितने बड़े आलोचक ही क्यों न हो परन्तु देश को शर्मिंदा या बदनाम करने वाले कृत्यों से दूर रहना चाहिए. नीति या सोच या विचार की आलोचना आजादी है लेकिन इस आज़ादी में देशभक्ति और देशद्रोह में फर्क करना जरुरी है. संवेदनशील होना आवश्यक है यह हमारी संस्कृति का हिस्सा है लेकिन इसमें वास्तविकता का होना जरुरी है न कि छ्द्मजाल.
*प्रकाशक, पाठक और रचनाकार   
मैं रचनाकार और पाठक के बीच की कड़ी 'प्रकाशक' को भी सबसे बड़ी चुनौती मानता हूँ. साहित्य यथार्थ की अभिव्यक्ति है, वैचारिक अभिव्यक्ति है, शैली की अभिव्यक्ति है, विद्रोह, संघर्ष, प्रेम, पीड़ा की अभिव्यक्ति है. पहले प्रकाशक रचनाकारों के पीछे भागता था लेकिन आज रचनाकार प्रकाशक के पीछे भाग रहा है. और प्रकाशक व्यवसायिक दृष्टि से ही केवल मोलभाव कर रहा है. उसे लेना देना नही कि वह क्या पाठक को प्रस्तुत कर रहा है. क्या वह वास्तव में साहित्य की सेवा कर रहा है.   सोसियल वेबसाईट पर आज बहुत से युवा लेखन की और अग्रसर है. इसमें संदेह नही की कुछ तो अव्व्वल दर्जे की सामग्री [ भाषा, भाव, व्याकरण ] प्रस्तुत कर रहे है..लेकिन अधिकतर खुद को खुद ही कवी साहित्यकार की उपाधि देकर प्रस्तुत कर रहे है न भाषा का ज्ञान, वर्तनी में अशुधिया, न भावो का संचार लेकिन पुस्तके छपवा कर खुद को साहित्यकार समझ बैठा है. इस सोच  इस विचार में अनुभवी साहित्यकारों को मार्गदर्शन करना जरुरी है
*साहित्यकारों की याद
आज हम पुराने साहित्यकारों को भूलते जा रहे है.. नए रचनाकार उन्हें पढ़ते नही है, उनकी शैली को पढ़ते, समझते नही है.  वे क्यों स्तम्भ कहे जाते है उनकी दिशा क्या थी उनकी सोच विचार क्या थे. हमें उनकी याद दिलाना याद रखना जरुरी है. नहीं तो साहित्य बचेगा कैसे फिर कैसी चुनौती. फिर जो है वो है सामने है.
*रचनाशीलता की चुनौतियाँ:
सृजन में छात्र बने रहना आवश्यक है गंभीर लेखन जिसमे समकालीन विमर्श [ चिंता / दुःख  ] समाहित है, समाज को कौन प्रभावित कर रहे है? बाजारवाद कहीं रचनाशीलता को प्रभावित नहीं कर रहा है ? क्या हम उपभोक्तावादी बन गए है. क्या हमारे मूल्य हमारे संस्कार धरे के धरे रह गए है? इस सोच में स्व्यम के व्यक्तित्व को भी देखना होगा. हमें चाहिए कि पहले हम रचनात्मक टिप्पणी करना सीखे तो स्वयं ही
रचनात्मक लेखन की ओर झुकाव भी बढेगा और फिर लोगो को उद्वेलित कर सकने की क्षमता पैदा हो...
ध्यान कीजिये व्यंग्य में शरद जोशी जी का .. उनकी बातचीत में भी आपको वही अंदाज मिलेगा व्यंग्य का क्योंकि वे रोज ही व्यंग्य का सृजन करते थे. कमलेश्वर जी हो, निर्मल वर्मा जी हो प्रेमचंद हो  उन्होंने अपनी कहानियो में वे तत्व प्रयोग किये है जिनसे वे आज  पहचाने जाते है. आप कविता लिख रहे है तो समकालीन सरोकार को किस तरह शामिल किया है देखना होगा... चुनौती है कि हम किस तरह व्यंग्य में, कहानी में, कविता में आज को शामिल कर पा रहे है .   हमारी अभिव्यक्ति में पाठक कहाँ खड़ा है क्या हम पाठक के दिल दिमाग से खुद को जोड़ पाए है. विचारधारा, प्रतिबद्धता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बनाए रखना भी महत्वपूर्ण चुनौती है. 
*पक्षपात की चुनौतियाँ:
लेखन में अधिकतर पक्षपात होता आया है, आज साहित्यकार अपने से अच्छा लिखने वाले की चर्चा करना नही चाहते नाम लेना तो छोडो. अगर गलती से नाम ले भी लिया तो खुद को ऊपर रख ही बात करते है. और इसने ही साहित्य जगत को गुमराह भी किया है और चोट भी पहुंचाई है. समीक्षा हो या आलोचना दोनों के लिए 'विषय ज्ञान' का होना  जरुरी है जो साहित्य को नई ऊंचाइयो पर ले जा सकता है. अच्छे कार्य की सराहना और सम्मान देना सीखना होगा. लेकिन इसका स्तर कैसा हो यह अनुभवी साहित्यकार तय करे नहीं तो आज गली गली में सम्मान मिल रहे है अगर आपका पी आर अच्छा है तो आप हर जगह आमंत्रित हैं सम्मान देने की होड़ में है चाहे उस व्यक्ति विशेष  के साहित्य का स्तर मध्यम या निम्न दर्जे का ही क्यों न हो. लिंग पक्षपात भी अपनी जड़े फैला चुका है.
अंत में ....
यहाँ उपस्थित विशिष्ट अतिथि श्री मैनेजर पांडे के शब्दों को कहीं पढ़ा था कि "विचारधारा के बिना आलोचना और साहित्य दिशाहीन होता है"
अपनी बात मैं समाप्त करना चाहूँगा और यहाँ उपस्थित मित्रो सदस्यों से यही कहूँगा कि आइये हम अपनी दिशा निर्धारित करे और साहित्य के समक्ष जो चुनौतियाँ उन्हें स्वीकार कर साहित्य को भी नई दिशा दे. जिससे साहित्य की प्रासंगिकता प्रश्नों के घेरे में न रहे. साहित्य को साहित्य बनाये रखना होगा. शुभम

धन्यवाद !!  
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
21 नवंबर 2015 

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