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रविवार, 1 जनवरी 2017

इंतज़ार में है ...




इंतज़ार में है ... 

शून्य को साक्षी मान 
जीवन के पथ पर 
निडरता से कदम रखते हुए 
चल तो दिया था

वक्त और किस्मत से बेख़ौफ़
अपनों में सुरक्षित समझ
लम्बी यात्रा का साजो सामान रख
चल तो पड़ा था

सत्य और ईमान की गठरी बाँध
कर्तव्य की पहचान कर
संसार में अपनी पहचान बनाने
चल तो रहा था

यूं चलते चलते न जाने कब
शून्य से डरने लगा
डर से कदम पीछे खींच कर
मैं रुक गया था

वक्त दुश्मन, किस्मत रोड़ा बने
अपनों में असुरक्षित महसूस कर
यात्रा का साजो सामान बिखरते ही
मैं रुक गया था

झूठ फरेब के जाल में उलझ
कर्तव्य से विमुख हो कर
अपनी ही पहचान खोकर
मैं रुक गया था

अस्तित्व की जंग जारी है
गिर कर उठना आदत हमारी है
नया सृजन, नई मंजिल 'प्रतिबिम्ब'
अभी भी मेरे इंतजार में है
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 प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ०१/०१/२०१७
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