एक गलियारा
कुछ अंधेरा
अपने मे समाये हुये
मै चला जा रहा था
इस गलियारे के
बीचो बीच
रोशनी की तलाश मे
आंखे बडी हुई
मन मे एक डर
शरीर पर एक सिरहन
चेहरे मे सिकन
रुकती सी धडकन
सहसा एक रोशनी
धीमे से गलियारे मे
फैलने लगी
सब कुछ साफ
नज़र् आने लगा
गलियारे का स्वरुप
अलग सा था
मेरी सोच के विपरीत
जिसे अंधेरे में समेटा था
अब सब कुछ सहज था
ना डर था ना सिकन
अधेरे और रोशनी का
बस ये अंतर था
इस रोशनी की तलाश
अब जीवन मे भी है
इतना पता है मुझे
रोशनी मेरे भीतर है
बस अहसास
होने का इंतज़ार है
जब मै स्वयं को
इस रोशनी से
प्रकाशमय कर सकूं।
- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
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