एक सच येसा भी ......
वक्त की चादर ओढ़, बूढ़ा हो चला तन
कर्म धर्म की लाठी ले, चलता रहा तन
आशाओं का दीप जला, जलता रहा मन
अरमानों का घोट गला, पिस्ता रहा मन
सपने बनते टूटते रहे, चाह पलती रही
अपने पराए हुये, आँख बस तकती रही
दिलो दिमाग में, सोच तांडव करती रही
कभी सुध कभी बेसुध, सांस चलती रही
एक जीत मे, भीड़ हर पल बढ़ती रही
एक हार मे, भीड़ हर पल घटती रही
खुशियाँ किस्मत की, किताब पढ़ती रही
हर पन्ने पर ,दुख के निशान लगाती रही
कितना सुलझाया, लेकिन डोर उलझती रही
कितना समझाया ,लेकिन सोच पनपती रही
कितना बनाया,लेकिन राह बिगड़ती रही
कितना जगाया ,लेकिन किस्मत सोती रही
अब भी कहाँ सुधरा है , चिंतित मेरा मन
अब भी करता रहता है, चिंतन मेरा मन
अब भी भूत भविष्य मे है, उलझा मेरा मन
अब भी उलझनों से कहाँ है, सुलझा मेरा मन
प्रतिबिंब बड़थ्वाल
एक सच येसा भी ...... वक्त की चादर ओढ़, बूढ़ा हो चला तन कर्म धर्म की लाठी ले, चलता रहा तन आशाओं का दीप जला, जलता रहा . Excellent Composition
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