एक पत्ता
अपनी खूबसूरती
पर मचलने लगा
रंग पर इतराने लगा
सोचने लगा
काश मैं भी
यहाँ से निकल
दुनिया के रंग मे
घुल जाऊँ
टूटा पत्ता साख से
हवा के साथ चल पड़ा
आज़ाद हुआ कहकर
मुस्कराने लगा
अब पेड़ से
ना कोई बंधन
ना कोई शिकायत
उठते गिरते पड़ते
हवा के थपेड़ो संग
ना जाने कहाँ खो
गया
खुद को अकेला पा
उसे अहसास हुआ
अपने अस्तित्व का
सोचने लगा वह
उस साख से फिर
कभी न जुड़ पाएगा
और अब
सूख कर
मिट्टी मे मिल
जाएगा
मिट्टी मे मिल
जाएगा
- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
हृदयस्पर्शी कविता है। पढ़ते-पढ़ते ऐसा आभास होने लगता है मानो पत्ता क्या है..एक मासूम सा बच्चा है जो अपनी माँ से बिछुड़ कर अब घबरा रहा है....। शब्द सार्थक हैं।
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने प्रभा जी .... वास्तविकता है ... शुक्रिया
हटाएंबहुत कुछ कह दिया आपने ..गहरी अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंआभार मानव जी
हटाएंएक पत्ता--- very thought provoking composition
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आशुतोष जी
हटाएंबहुत गहरी और सच्ची बात कह दी है।
जवाब देंहटाएंतारीफ में कविता के वश यह शब्द हैं काफी।
कृपया इसे भी पढ़े-
नेता कुत्ता और वेश्या
शुक्रिया दिनेश जी ... हाँ जरूर
हटाएंसुंदर बिम्ब -विधान !एक बार शाख से अलग होने पर अपने अस्तित्व को बचाना कितना कठिन है -इसे बखूबी वर्णन किया है ..बधाई !
जवाब देंहटाएंआभार सरोज जी .... सादर
हटाएं