[यह रचना १६ जनवरी २०११ को लिखी थी]
मै नाचूं और पेट भरूं, चलाऊँ अपना छोटा/बडा सा परिवार
इसके लिये किसी महफिल की शान बनू या जाऊँ डांस बार
फेक जाते है लोग पैसा हर बार उस पर भी लगाये नज़र सरकार
किसी जलसे में मारु ठुमका तो मीडिया भी पूछती सवाल
हज़ार
मेरी महफिल में आ जाये यदि कोई नेता या आये कोई खास
उनकी भी धज्जिया उडाते है और सबको लगता है ये बकवास
सभ्य समाज की बात और है, जमती है महफिल एक शाम के नाम
बदन बिकता है नाचता है किसी अवार्ड के नाम या चेरिटी
के नाम
पैसा करोडो मे ले जाते है कभी शीला की जवानी कभी
मुन्नी
बदनाम के साथ
यंहा जो नेता अभिनेता या आये कोई खास, वो भी बडे हो जाते है उनके साथ
उनकी अदा और बदन को खूब भुनाते लोग, हमे तवाइफ का नाम दे जाते है वो
डिस्को, रेव पार्टियो में जाकर देखो सभ्य लोगो,बताना कौन अश्लील है हम या वो
हमारे कपड़ो और उनके ना बराबर कपडो में भी कितना
अंतर करते है सभ्य लोग
देख उनके लटके झटके, 'सेक्सी का या 'ज़ीरो फिगर' का
खिताब देते है सभ्य लोग
मै जिस्म बेचूँ, कंही नाँचू तो ध्न्धा कंहते है इसे
सभ्य
लोग
वो बेचे - खरीदे तो
'इलीट'
कहते
है उन्हे सभ्य
समाज के
लोग
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प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
सुदर अभिव्यक्ति आज के हालत पर तो बहुत सटीक है, ........... अब मंदिर हो या मस्जिद या हो फिर गुरुद्वारा, हर देहलीज पर लगता है शाम का आलम मधुशाला !!!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंआभार फरियादी जी
हटाएंexcellent composition
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आशुतोष जी
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