देख रहा हूँ
कभी होकर
मौन
कभी बेबाक
बन
जिंदगी की
परतो को
उधड़ते बुनते
जाल को
मशीन बना
कर्म
छूट रहा कही
धर्म
वादा
मोहब्बत का
सुर बगावत
का
दोस्ती
सीमित लेकिन
उदगार ज़माने
के
आस एहसास
फीके है
अब सीख लिए
सलीके है
रुतबा
जिम्मेदारी का
मानसिकता
फरेब की
'प्रतिबिंब' देख अपना
असमंजस में
पड़ गया हूँ
सच या झूठ,
पहचान नही
पा रहा हूँ
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