एक
लम्बे अंतराल के बाद
अंधेरो
के आँचल से निकल
सूरज
की किरणों से
लेकर
चला था
कुछ
रोशनी
और
एक
योद्धा की तरह
हौसलों
का चौड़ा सीना लिए
कर्तव्य
मार्ग पर
नैतिकता
के
कठोर
धरातल पर
ईमानदारी
के पग भरते हुए
लक्ष्य
को भेदने का
मूल्यों
का अचूक अस्त्र लिए
चल
पड़ा था .....
उजाले
में भी
किस्मत
का पत्थर
ठोकर
दे गया
उम्मीद
का घड़ा
टूट
मिटटी में मिल गया
और
दोष
मेरे सर मढ़
अंतर्मन
को नियंत्रित कर
मुझे
कटघरे में खड़ा कर गया...
मेरे
अस्तित्व को
मिटाने
की सुपारी लेकर
वक्त
किस्मत
की आड़ में छिप गया
और
किस्मत
साँसों
को उनकी उम्र के सहारे छोड़
हंसती
खिलखिलाती
मेरे
जख्मो को हरा करती रही
और
वेदना चुपचाप
सिसकती
रही
आज
शिकायत ने
वक्त
और किस्मत की
साजिश
से समझौता कर लिया
- प्रतिबिम्ब
बड़थ्वाल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी टिप्पणी/प्रतिक्रिया एवम प्रोत्साहन का शुक्रिया