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मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009

फिर भी ना जाने क्यो-(प्रेम का एक रुप ये भी)


-फिर भी ना जाने क्यो-

प्रेम अर्थ है,
प्रेम समर्थ है,
फिर भी ना जाने क्यो व्यर्थ है॥

प्रेम आरजू है,
प्रेम तपस्या है,
फिर भी ना जाने क्यों निराशा है॥

प्रेम चेष्टा है,
प्रेम निष्ठा है,
फिर भी ना जाने क्यों रुठा है॥

प्रेम शक्ति है,
प्रेम अनुभूति है,
फिर भी ना जाने रुकी अभिव्यक्ति है॥

प्रेम पावन है,
प्रेम नादान है,
फिर भी ना जाने क्यो परेशान है॥

प्रेम शान है,
प्रेम ईमान है,
फिर भी ना जाने बना क्यों हैवान है॥

प्रेम गीत है,
प्रेम जीत है,
फिर भी ना जाने मिलती क्यों हा
र है॥

- प्रतिबिम्ब बडथ्वाल

(पुरानी रचना आप लोगो के लिये दूसरे ब्लाग से)

4 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेम के दो रूप है, कभी छाँव है कभी धूप है.
    प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति..बढ़िया रचना..बधाई!!!

    जवाब देंहटाएं
  2. kyaa baat hai..........bada accha likh jada hai.. :))

    जवाब देंहटाएं
  3. TUHI MERI AARJU HAI TUHI HAI MERI BANDGI
    JINA NAHIN PYAAR BIN VIYARTH HAI MERI JINDGI
    SACH POOCHO AAJ YE MAN UDAAS KYON HAI
    PIYAASE SUKHE LABON PAR NAAM TERA KYON HAI.

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी/प्रतिक्रिया एवम प्रोत्साहन का शुक्रिया

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