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सोमवार, 15 नवंबर 2010

मैं धरती हूँ


मैं धरती हूँ

सब कहते हैं
मैं माँ हूँ
धरती माँ
धरती माँ

मेरा सीना
भी गर्व से
ऊँचा हो जाता है
जब तुम
कहते हो
धरती माँ

तुम्हारे लिये
कहीं सड़क
कहीं गली
कहीं झोपडी
कहीं महल
कहीं नदी
कहीं तालाब
कहीं जंगल
कहीं शहर
कहीं खेत
कहीं खलिहान
कहीं सागर
कहीं बांध
सबको जगह दी है
अपने में

हर पल
कोई खोदता मुझे
कोई तोड़ता मुझे
कोई चूमता मुझे
कोई रौंदता मुझे
कोई पूजता मुझे
कोई सज़ा देता मुझे
लेकिन मेरा प्यार
सब के लिये
एक है एक रहेगा

मेरे सीने पर
सब चलते है
सब दौड़ते है
अच्छा लगता है
लेकिन
अच्छा नहीं लगता जब
गंदगी फैलाते हो
कहीं थूकते हो
कूडा करकट सब
बिखेर देते हो
इससे वातावरण
दूषित होता है
मैं तो सह लेती हूँ
आखिर माँ हूँ
बस इस बात का
ख्याल रखना सदा
दूसरों पर इसका
असर ना हो या
स्वास्थ्य खराब ना हो

मैंने सब
अपने में समाया है
तुमने दुख दिया या खुशी
फिर भी तुम्हें प्यार दिया
तुम्हारी हर खोज़ में
मैने साथ दिया
दैनिक जीवन में
जो चाहा वो दिया
अपने सुख की खातिर
तुमने मुझे तोड़ा मरोड़ा
फिर भी मैंने
तुम्हारा साथ कभी न छोडा
हाँ मैं धरती माँ हूँ



मैंने
हर धर्म को अपनाया है
हर इंसान से प्यार किया
काल गोरा, छोटा बडा
सब को बस अपना कहा
इस कोने से उस कोने तक
बस मैंने सब से नाता जोड़ा है
सब मेरा ही अंश है
कोई यहाँ तो कोई वहाँ
इसी लिये जब माँ कहते हो
मुझे मान, सम्मान और्
प्यार मिल जाता है


प्रकृ्ति का दोष भी
मैंने समेटा है
माँ बनकर बच्चो का
बहता खून
मृत शरीर
सब अपने सीने में
दफन किया
दिल मेरा भी रोता है
आंसू मेरे भी आते है
फिर भी अपनो की खातिर
फिर से धरती माँ बन जाती हूँ
हाँ मैं तुम सबकी माँ हूँ
धरती माँ!!!!!

4 टिप्‍पणियां:

  1. वन्दे मातरम...
    प्रतिबिंब जी बहुत अच्छी रचना है...धरती माँ का यूँ हम से मुखातिब होना बहुत कुछ सिखा गया है... शुभकामनाएँ...ऐसे ही लिखते रहें...

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत खूब! बहुत सारगर्भित प्रस्तुति...माँ आखिर माँ होती है इसलिये सब कुछ सह लेती है...

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी/प्रतिक्रिया एवम प्रोत्साहन का शुक्रिया

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