उधेड़बुन
न जाने कितने
फटे पुराने विचारो को
फिर से अपनाना चाहती है
सुई रूपी हौसले से
आस रुपी धागे का
अस्तित्व को बचाने
एक जाल बनता जाता है
अपने ही लोगो में
अपनी पुरानी तस्वीर दिखाता
अपने अस्तित्व का ऐलान करता
अब भीड़ से अलग दिखता हूँ
जिंदगी की दौड़ में
नए ज़माने के दौर में
पुराना कब तक सहेज सकूंगा
उधेड़बुन अब भी ज्यों की त्यों है
-प्रतिबिम्ब
बड़थ्वाल
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