भीड़ का बोलबाला है
वरना लगा सब जगह ताला है
चाहे दुकान हो या रिश्ते
भीड़ का अनुसरण कर
इंसान बिक जाता है
इंसान बिछ जाता है
इंसान भीड़ का सत्य नही जानता
लेकिन भेड़चाल में कदम मिला
अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है
भीड़ क्या कहती है
भीड़ क्या सुनती है
भीड़ क्या चाहती है
इंसान ने स्वयं को भीड़ के
आकर्षण वाले खूंटे से बाँध लिया है
फिर चाह कर भी मुक्ति नही मिलती
क्योंकि यह खूंटा बाहर ही नही
अंदर भी पेंठ बना लेता है
भीड़ में आप हो,
या भीड़ आपके लिए हो
दोनों ही
एक दूजे के परिचायक नज़र आते है
मैं इसी भीड़ का हिस्सा हूँ
यह जानते हुए भी
कि
भीड़ तो भ्रम है
भीड़ तो मिथ्या है
लेकिन
कल इसी भीड़ को
अपने लिए खड़ा करना चाहता हूँ
अपने साथ देखना चाहता हूँ
बिकता है इंसान
केवल पैसो से नही
भावो और स्वार्थ की
महंगी बोली लगती है यहाँ
टूट जाते है रिश्ते
दल बदलू नेताओं की
आत्मा लिए रिश्ते
बस नेता की तरह
अभिनेता बनना सीख लो
भीड़ को खुद से जोड़ लो .......
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ८/११/२०१६
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