प्रतिष्ठा के अहंकार से मुक्त
संस्कार रूपी शिक्षा से लैश
अपने व्यवहार का कवच पहन
कलम का निर्भीक अस्त्र उठा
वाणी का अचूक शस्त्र ले कर
चला था अपनों की तलाश में
कुछ ही दूर पर अपनों का शिविर
जैसे मेरा ही इंतजार उनको था
नए नियमों का उल्लेख करते
सैकड़ों परिचित अपरिचित चेहरे
सबके उठे हाथ और बंद मुट्ठी
कुछ ही क्षणों में कारवां बन गया
भीड़ थी, जिसे कारवां समझ लिया
किसी आवाज़ पर मुड़ने वाले चेहरे
पता नही कब रास्ता भटक बिछड़ गए
जो बचे अपने थे, शायद जख्मों को खुरेदने
प्रेम का जहर पिला, बगल में छुरी लेकर
मैं मोह जाल में फंस, उफ़ भी न कर सका
मैं अभिमन्यु !!! रिश्तों के चक्रव्यूह का
स्नेह, आदर और विश्वास का मुखौटा पहने
अपने ही लोगो से - पराजित अभिमन्यु !
काश ‘प्रतिबिम्ब’, अभिमन्यु की तरह ही
गर्भ में ही इस चक्रव्यूह का रहस्य जान लेता
तो आज मुझे कदापि इतना दुःख नहीं होता
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २३/०२/२०१८
सबके उठे हाथ और बंद मुट्ठी
जवाब देंहटाएंकुछ ही क्षणों में कारवां बन गया..
गूढ़ रचना..
दो बार और पढ़ना पड़ेगा..
सादर..
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 04 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआभार यशोदा जी ... कुछ विषय सपष्ट होकर भी अंजाने से लगते है।
जवाब देंहटाएंसुशील जी सादर धन्यवाद
जवाब देंहटाएंदिग्गविजय जी बहुत बहुत आभार आपका।
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