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गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

जीने का राग

 





कामनाओं के जल से नहाकर, प्रेम से शृंगार करती है

बिछता आंचल नेह का, तब आकुलता विश्राम करती है

सौन्दर्य वाटिका सा भ्रमित, पल पल विस्मय से भरती है

प्रेमरस की खुशबू से, अब वो जीने का राग सुनाती है


होकर दृढ़ समर्पित, रोम रोम यौवन का भान कराती है

धधकते अनल ज्वार, को अपने प्रेमतप से बुझा जाती है

हो शरणागत प्रार्थना सी, तन मन में व्याप्त हो जाती है

प्रेमरस की खुशबू से, अब वो जीने का राग सुनाती है


बरसा कर प्रीत अपनी, कभी दूर कहीं गुम हो जाती है

गूंजती है सदा उनकी, तब आँखे देखने को तरस जाती है

प्रणय की कविता बन, क्षितिज सी हर पल मुझे लुभाती है

प्रेमरस की खुशबू से, अब वो जीने का राग सुनाती है


विचलित होते हृदय पर, असंख्य प्रेम पुष्प बरसाती है

टूटती हुई उमंगो पर, तपते अधरों से उतर दे जाती है

शून्य हुए अरमानों को, चाहत का प्राण तत्व दे जाती है

प्रेमरस की खुशबू से, अब वो जीने का राग सुनाती है


व्याकुल प्राणों को आश्रय देती, नीरसता को हर लेती है

गर्म लहू से उठती जो चिंगारी, प्रेम सुधा से बुझा देती है

बन छाँव मरूस्थल में मेरे, अपने उरस्थल से लगा देती है

प्रेमरस की खुशबू से, अब वो जीने का राग सुनाती है


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल, २३ अप्रैल २०२० 


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